दक्षिण कोसल अर्थात् वर्तमान छत्तीसगढ़ जहाँ एक आटविक प्रदेश था, वहीं यह प्रदेश उच्चकोटि के साधकों, तपस्वियों और मुनियों की साधना का क्षेत्र भी रहा है ।उन तपस्वियों और साधकों की ऊर्जा का ही प्रभाव आज तक बना हुआ है। जो छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों में आज भी सरलता, सहजता, सजगता और वसुधैवकुटुंबकम् की भावना को आज भी आत्मसात कर रखा है ।इसीलिए तो कहा भी जाता है कि छत्तीसगढ़िया, सबले बढ़िया। यह सब उन्हीं ऋषि-मुनियों और साधकों की जप-तप-पूजा का ही फल है।
छत्तीसगढ़ का दक्षिण कोसल में किस प्रकार के ऋषि-मुनि निवास करते थे? यह महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड के छठवें सर्ग में लिखित ऋषि-मुनियों के वर्णन से पता चलता है। जो ध्यान देने और जानने योग्य है।
शरभंगे दिवं प्राप्ते मुनिसंघाः समागताः । अभ्यगच्छन्त काकुत्स्थं रामं ज्वलिततेजसम् ।।१।।
अर्थात शरभंग मुनि के ब्रह्मलोक चले जाने पर प्रज्वलित तेजवाले ककुत्स्थ वंशी श्री रामचंद्र जी के पास बहुत से मुनियों के समुदाय पधारे।
वैखानसा वालखिल्याः सम्प्रक्षाला मरीचिपाः।
अश्मकुट्टाश्च बहवः पत्राहाराश्च तापसाः।।२।।
दंतोलूखलिनश्चैव तथैवोन्मज्जकाः परे।
गात्रशय्या अशय्याश्च तथैवानवकाशिकाः ।।३।।
मुनयः सलिलाहारा वायुभक्षास्तथापरे।
आकाशनिलयाश्चैव तथा स्थण्डिलशायिनः ।।४।।
तथोर्ध्ववासिनो दांतास्तथाऽऽर्द्रपटवाससः ।
सजपाश्च तपोनिष्ठास्तथा पंचतपोऽन्विता ।।५।।
अर्थात् उनमें वैखानस (ऋषियों का एक समुदाय जो ब्रह्मा जी के नख से पैदा हुए), वालखिल्य(ब्रम्हा जी के रोम से प्रगट हुए मुनियों का समूह) ,सम्प्रभाल (जो भोजन के बाद अपने बर्तन धो पोंछ कर रख देते हैं, दूसरे समय के लिए कुछ नहीं बचाते ),मरीचिप( सूर्य अथवा चंद्रमा की किरणों का पान कर के रहने वाले) बहुसंख्यक अश्मकुट्ट (कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाने वाले)पत्राहार( पत्तों का आहार करने वाले), धन्तोलूखली( दांतो से ही उखल का काम लेने वाले ),उन्मज्जक (कंठ तक पानी में डूबकर तपस्या करने वाले), गात्रशय्य ( शरीर से ही शैय्या का काम लेने वालेअर्थात् बिना बिछौने के ही भुजा पर सिर रखकर सोने वाले )अशय्य (शय्या के साधनों से रहित), अनवकाशिक (निरंतर सत्कर्म में लगे रहने के कारण कभी अवकाश न पाने वाले ),सलिलाहार( जल पीकर रहने वाले ),वायुभक्ष( हवा पीकर जीवन निर्वाह करने वाले) आकाशनिलय ( खुले मैदान में रहने वाले),स्थण्डिलशायी (वेदी पर सोने वाले)उर्ध्ववासी ( पर्वत शिखर आदि ऊँचे स्थानों में निवास करने वाले),दान्त( मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले ), आर्द्रपरवासा ( सदा भीगे कपड़े पहनने वाले), सजप ( निरंतर जप करने वाले),तपोनिष्ठ( तपस्या अथवा परमात्मा तत्व के विचार में स्थित रहने वाले) और पंचाग्नि सेवी( गर्मी के मौसम में ऊपर से झ का और चारों ओर से अग्नि का ताप सहन करने वाले) इस प्रकार के संत यहाँ पर ,दक्षिण कोसल के जंगलों में जप-तप और साधना कर निवास करते थे।
भगवान राम अयोध्या छोड़ने के बाद तमसा नदी पार कर वाल्मिकी आश्रम, जो गोमती नदी तट पर स्थित है,पहुँचे। फिर प्रयागराज होते हुए चित्रकूट पहुँचे। वहीं भरत मिलाप हुआ। वहाँ से अत्रि मुनि जी के आश्रम गए और फिर दंडकवन में प्रवेश किया।
वहाँ से शरभंग ऋषि के आश्रम गए ,फिर कुछ समय व्यतीत कर सीता पहाड़ की तराई में स्थित सूतीक्ष्ण मुनि के आश्रम गए ।उनसे भेंट किया फिर उनसे आशीर्वाद लेकर, अगस्त्य ऋषि के आश्रम पहुँचे। उस समय वे आर्य संस्कृति के प्रचार के लिए वह दक्षिणापथ जाने वाले थे। वहाँ गुरु मंत्र लेकर अस्त्र-शस्त्र तथा सीता के लिए आभूषण और कभी मलिन न होने वाले वस्त्र प्राप्त किए। वहाँ सोनभद्र नदी तट पर मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में उनसे मुलाकात की। फिर सिद्ध भूमि होते हुए मवाई नदी को भरतपुर के पास पारकर दक्षिण कोसल वर्तमान छत्तीसगढ़ में प्रवेश किए।
उस समय यह क्षेत्र सिद्ध महात्माओं के आश्रमों से भरा हुआ स्थल था। जहाँ देवता गण भी आते थे ।इसलिए इस क्षेत्र को सरगुजा कहा जाता है। घने वन और जीव-जंतुओं की भरमार इस वन ने देव, दानव और पशु सबको आकर्षित किया। कोटाडोल होते हुए नेउर नदी के तट पर स्थित छतौड़ा आश्रम पहुँचे। वहाँ संत महात्माओं का संगम होते रहते थे। यह सिद्ध क्षेत्र था। जहाँ सिद्ध बाबा लोग तक करते थे । इसी कारण से उसे सिद्धबाबा का आश्रम कहा जाता है।
जमदग्नि आश्रम -सरगुजा संभाग के सुरजपुर तहसील में देवगढ़ नामक स्थान है। यह अंबिकापुर से लगभग 38 किलोमीटर दूर रेड नदी के भाई तट पर स्थित है ।रामायण काल में इस जगह महर्षि जमदग्नि जी का आश्रम हुआ करता था। महर्षि जमदग्नि भगवान विष्णु के छठवें अवतार भगवान परशुराम जी के पिता थे। जिन्होंने अपने पिता के आदेश पर अपने भाइयों और माता जी का सिर भगवान शिव द्वारा प्राप्त परसु से काट डाला था। जिससे वह राम से परशुराम नाम बन गए। महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका जी थी। जो यहाँ रेड़ या रेणुका नदी के नाम से बहती है। यहाँ प्रसिद्ध अर्धनारीश्वर शिवलिंग स्थापित है ।इस शिवलिंग में एक मुखाकृति बनी हुई है। जिसे पार्वती जी की मुख माना जाता है। इसी कारण इसे एक मुखी लिंग या अर्धनारीश्वर लिंग कहा जाता है। वर्तमान समय में यहाँ एकादश रूद्र मंदिरों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हुए हैं। देवगढ़ में स्थित मठ शैव संप्रदाय से संबंधित है।
महरमण्डा ऋषि आश्रम- अंबिकापुर से बनारस रोड पर महान नदी तट पर बनी एक प्राचीन गुफा है। अंदर से देखने पर यह ओम की आकृति पर बनी हुई है ।जनश्रुति के अनुसार इसी गुफा में महरमण्डा ऋषि तप साधना करते थे। इनके पास ही उनका एक आश्रम भी था ।जहाँ वनवास के दौरान भगवान राम, सीता और लक्ष्मण उनसे भेंट करने आए थे।
वशिष्ठ आश्रम- ऋषियों के अनेक आश्रम हुआ करते थे। यह व्यवस्था प्राचीन काल में भी थी। जनश्रुति है कि वशिष्ठ मुनि का एक आश्रम उदयपुर के पास स्थित रामगढ़ पहाड़ी पर भी थे। जहाँ मुनि के आज्ञा से वनवास के दौरान भगवान राम रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित चंदन माटी गुफा से चंदन निकाले थे।
सुमाली ऋषि -सरगुजा के लोकगीत में 'देव दमाली बंदर कोट ,तेकर बेटी बांह अस मोट' मिलता है । इस दमाली राक्षस का वध वानरराज केसरी ने किया था ।अंबिकापुर से दरिमा मार्ग पर अंबिकापुर से 18 किलोमीटर की दूरी पर 2 गाँव है ।नान्ह दमाली और बड़े दमाली। इसी के पास बंदरकोट नामक स्थान है ।इसी बंदरकोट का प्राचीन नाम दमालीकोट था। जब वानर राज केसरी ने दमाली का वध किया तो दमालीकोट का नाम बदलकर वानरकोट कर दिया गया। इस जगह एक ताल है जिसे बंदरताल कहा जाता है। जहाँ प्राचीन शिवलिंग है। इसी तालाब के पास सुमाली ऋषि जी का आश्रम था जहाँ वे तपस्या करते थे।
महर्षि दंतोलि - तपस्थली मैनपाट के वृहद क्षेत्र में बहुत से ऋषि-मुनियों का आश्रम था। यहाँ की भौगोलिक आकर्षण ऋषि ,मुनि और तपस्वी को आकर्षित करते थे। जिसे मैनीनदी पोषित किया करती थी। यहीं महर्षि दंतोलि जी की तपस्थली और आश्रम थे।
महर्षि सूतीक्ष्ण - मैनपाट के पहले केसरीवन में महर्षि सूतीक्ष्ण जी का आश्रम था। वनवास के दौरान भगवान राम महर्षि सूतीक्ष्ण को ही साथ लेकर महर्षि दंतोलि के आश्रम तक पहुँचे थे। उनका एक आश्रम मैनीनदी तट पर भी था।
महर्षि शरभंग - मैनपाट के मछली प्वाइंट के पास सरभंजा ग्राम है ।जहांँ शरभंग ऋषि आश्रम बनाकर तपस्या करते थे। दंतकथा के अनुसार वनवास के दौरान भगवान राम पहले बंदरकोट से केसरी वन पहुँचे ।वहाँ उनके आश्रम में सूतीक्ष्ण से भेंट करके दंतोलि के पास गए। उसके बाद दोनों के साथ महर्षि शरभंग आश्रम जाकर महर्षि शरभंग से मुलाकात किए थे। मैनीनदी काराबेल ग्राम के पास माण्ड नदी से संगम करती है। इस संगम स्थली पर भी ऋषि-मुनियों की तपस्थली और आश्रम थे।
मतंग ऋषि- छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग शिवरीनारायण में मतंग ऋषि का आश्रम मानते हैं ।इसका आधार वह मतंग ऋषि को शबरकन्या शबरी माता की गुरु मानते हैं।उन्होंने मतंग ऋषि के आश्रम में ही शिक्षा प्राप्त की थी। पर जनश्रुति अनुसार कोरबा जिले के मतरेंगा ग्राम में मतंग ऋषि का आश्रम माना जाता है। जबकि जिला मुख्यालय कोरबा से महज 23 किलोमीटर दूर पर परसाखोल गाँव में एक गुफा है ।उसे मतरेंगा खोल के नाम से जाना जाता है। इन्हीं के पास से एक जलधारा भी निकलती है। आज भी यह क्षेत्र सिद्ध क्षेत्र और ऊर्जावान है। इसे ही मतंग ऋषि का साधना स्थल मानते हैं। जैसे कि पहले ही कहा जा चुका है कि ऋषि मुनियों के अनेक आश्रम और साधना स्थल होते थे। वे एक जगह से दूसरे जगह विचरण करते थे।वे मौसम के आधार पर अलग-अलग आश्रमों में तपसाधना और निवास करते थे।
शबरी माता - जांजगीर जिले के अंतर्गत शिवरीनारायण नगर है ।यहाँ शबर जनजाति की कन्या और मतंग ऋषि की शिष्या शबरी अपने गुरु की आज्ञा से उनके तपस्थली में रहती थीं। वनवास के दौरान भगवान राम से भेंट के लिए प्रतीक्षारत थी। वह प्रतिदिन जंगली बेर को राम को खिलाने के लिए चख-चखकर रखा करती थी। यहाँ जहाँ तीन नदियों का संगम है। उसी स्थान पर जहाँ उनके गुरुदेव की तपसाधना स्थल एवं आश्रम थे।जिस आश्रम पर सबरी रहा करती थी। वह उच्च कोटि की साधिका भी थी ।
जब माता शबरी का भगवान राम से भेंट हुई तो यह स्थल शिवरीनारायण बना और अब भी यही शिवरीनारायण कहलाता है।
वाल्मीकि ऋषि- कसडोल के पास बालुकिनी पहाड़ के पास ही बसा तुरतुरिया ग्राम है। जनश्रुति के अनुसार यहाँ महर्षि बाल्मीकि का एक आश्रम था। हालांकि बाल्मीकि रामायण के अनुसार गंगा की सहायक तमसा नदी तट पर वाल्मीकि मुनि का आश्रम माना गया है ,पर ऋषि-मुनियों और संतों के अनेक आश्रम हुआ करते थे। जहाँ वे समय-समय पर निवास करते थे । मान्यता है कि इसी तुरतुरिया आश्रम में ही लव-कुश का जन्म हुआ था।तर्को और प्रमाणों के आधार पर इतिहासकार स्वर्गीय श्री विष्णु सिंह ठाकुर जी कहते थे।
माण्डव्य आश्रम - फिंगेश्वर-राजिम मार्ग पर प्राचीन माण्डव्य ऋषि का आश्रम है। ऋषि माण्डव्य इस आश्रम जप-तपऔर साधना किया करते थे। जहाँ श्री राम के साथ उसका भेंट हुआ था।
लोमष ऋषि - रामायण की कथा अनुसार वनवास के दौरान भगवान राम का लोमष ऋषि से भेंट हुआ था। लोमष नामकरण उनके शरीर पर अत्यधिक बाल होने के कारण पड़ा था। उन्होंने 100 वर्षों तक भगवान शिव की कमल पुष्पों से पूजा किया था। इसी से उन्हें वरदान मिला था कि कल्पान्त होने पर उनके शरीर से केवल एक बाल झडे़गा। उनके नाम से लोमष सहिंता और लोमष रामायण भी है ।राजिम में महानदी के तट पर उनका एक आश्रम भी थे।
उषभतित्थ( ऋषभ तीर्थ) - त्रेता और द्वापर युग से लेकर सातवाहन काल तक जांजगीर-चांपा जिले के दमाऊदहरा क्षेत्र में एक बहुत बड़ा आश्रम संचालित थे। जहाँ सातवाहन कालीन एक शिलालेख है। जिसमें हजारों गायों का दान दिये जाने का उल्लेख है। इतनी बड़ी संख्या में गायों का दान तो किसी आश्रम को ही दिया जा सकता है। जहाँ हजारों की संख्या में शिष्यगण अध्ययनरत हों। साधनारत हों। यह जगह अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी के पास रैनखोल है जो पहले रावण खोल था। ऊपर पहाड़ी पर पंचवटी नामक स्थान है। जहाँ राम, लक्ष्मण और सीता कुण्ड हैं। उन्हीं के आगे शैलचित्रों की खोज किया है। जिसमें दूल्हा-दूल्ही और सीताचौकी में सीता हरण की कथानक संबंधित शैलचित्र भी हैं । यहीं मारीच गुफा और गृधराज पहाड़ी है । यहाँ दूर-दूर तक फैले हुए विस्तृत ओंकार की पर पहाड़ी श्रृंखला में अनेक ऋषि- मुनियों का आश्रम आज भी है।
अत्रि ऋषि - मान्यता है कि पांडुका के पास अतरमरा ग्राम है। इसी ग्राम में अत्रि मुनि का एक आश्रम था। यह वन गमन मार्ग में रुद्री और राजिम के मध्य का पड़ाव था ।
कंक कृषि - गंगरेल बांध के पास ही देवखूंट नामक ग्राम में मंदिरों का एक समूह था। पर जब गंगरेल बांध बना तो यह क्षेत्र बांध के पानी में डूब गया। यहीं देवखूंट में ही ऋषि कंक का आश्रम था। उनका एक आश्रम कांकेर में भी था, जिसका नाम ऋषिकंक के कारण पड़ा।
श्रृंगि ऋषि - धमतरी जिला अंतर्गत सिहावा की पहाड़ी श्रृंखला है। इसे महेंद्रगिरि के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे बड़ी नदी महानदी का उद्गम क्षेत्र है। यहीं श्रृंगि ऋषि अपने आश्रम में तांत्रिक पूजा और अनुष्ठान किया करते थे ।वाल्मिकी रामायण के अनुसार दक्षिण कोसल के राजा का नाम भानुमंत था ।उनकी पुत्री कौशल्या का विवाह अयोध्या नरेश दशरथ से हुआ था।जब अयोध्या में पुत्रयेष्टि यज्ञ हुआ था। उस यज्ञ को इसी श्रृंगि ऋषि ने संपन्न कराया था। यज्ञ के फल स्वरुप कौशल्या की कोख से राम हुए थे। राजा दशरथ की पुत्री राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री बनी, जिसका नाम शांता थी। शांता भगवान राम की बहन थी। जिसका विवाह इसी श्रृंगि ऋषि से हुआ था। श्रृंगि ऋषि के आश्रम के आगे सांता गुफा भी है। इस तरह राम भगवान की बहन और बहनोई का संबंध भी सिहावा के श्रृंगी आश्रम से जुड़ जाता है।
सप्त ऋषि - सिहावा के पहाड़ी में सप्त ऋषियों मुचकुंद, अगस्त्य, अंगिरा, श्रृंगि, कंक, शरभंग, गौतम आदि ऋषियों के भी आश्रम थे। जहाँ समय-समय पर कुछ समय वे सिद्धि करते थे। सिहावा की भौगोलिक स्थिति ऋषि-मुनियों और संतों को भाते थे। इसलिए यहाँ पर अनेक ऋषि-मुनियों की तपस्थली और आश्रम थे।
दक्षिण कोसल या वर्तमान छत्तीसगढ़ आटविक राज्य होने के कारण संतो और ऋषि-मुनियों को आकर्षित करते थे। इसलिए वे यहाँ आश्रम बनाकर जप-तप और साधना करते थे।
वाल्मीकि रामायण अनुसार राम के समय दक्षिण कोसल के ऋषि मुनि और उनके आश्रम
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भरत के राम से भेंट होने के बाद चित्रकूट के ऋषि मुनियों के साधना में खलल पड़ने लगी थी। जिससे वे नाराज रहने लगे पर कोई कहते नहीं थे ।फिर कुलपति मुनि अपने शिष्यों के साथ घने वन के अन्य आश्रम में चले गए। ( अयोध्या कांड 106/ 24 )
तत्पश्चात् वे कुलपति महर्षि श्री रामचंद्र जी का अभिनंदन करके उनसे पूछ कर उन्हें सांत्वना देकर इस आश्रम को छोड़कर वहाँ से चले गए।वे अपने दल के ऋषियों के साथ अपने अपने स्थान चले गए।
अत्रि मुनि और उनके आश्रम -चित्रकूट छोड़ने के बाद ऋषियों के मतानुसार दक्षिण कोसल में जन स्थान की ओर बढ़ते हुए सबसे पहले अत्रि मुनि के आश्रम पहुँचें। (अयोध्या कांड 107/5 )वहांँ से चित्रकूट से अत्रि मुनि के आश्रम पर पहुंँचकर महा यशस्वी श्री राम ने उन्हें प्रणाम किया भगवान अत्रि ने भी उन्हें अपने पुत्र की भांति स्नेह पूर्वक अपनाया। मान्यता अनुसार कोरबा जिले के लेमरू वन परिक्षेत्र के अरेतरा ग्राम है, जहाँ पर अत्रि मुनि का आश्रम था। जहाँ वे तप-साधना करते थे। उसी के नाम पर इस जगह का नाम अरेतरा पड़ा। यहाँ अनेक प्राचीन गुफाएँ भी हैं, जिनमें शैल चित्र भी मिले हैं। जो इस जगह के प्राचीनता को प्रकट करते हैं ।यह ग्राम मानघोघर नदी के बांई तट पर बसा है ,जबकि गुफाएँ दोनों तटों पर घने जंगलों में हैं। यह क्षेत्र प्राचीन वन मार्ग क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है। इनकी पत्नी* धर्म परायणा बूढ़ी पत्नी तापसी महाभागा अनुसूया थीं । जिन्होंने एक बार 10 वर्षों से पड़ रहे अकाल के समय 10000 वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या कर इस क्षेत्र में फल, मूल और मंदाकिनी नदी को उत्पन्न किए , यहाँ मानघोघर नदी में एक धारा प्राचीन शैलाश्रय के पास से एक धारा निकलती है , जिससे यहाँ के लोग आज भी खेती करते हैं। एक बार उन्होंने देवताओं के कार्य के लिए 10 रात के बराबर एक रात भी बनाएँ ।( अयोध्या कांड 107/12) ।उन्होंने ही माता सीता के लिए दिव्य वस्त्र और आभूषण दिए ।(अयोध्या कांड 108/11) तीनों उनके आश्रम में रात्रि विश्राम भी किए। जहाँ अन्य ऋषि-मुनियों ने राम से इस क्षेत्र में नाना रूप धारी नरभक्षी राक्षसों तथा रक्तभोजी हिंसक पशुओं के बारे में बताया। ( अयोध्या कांड 108 /18,19) फिर अत्रि मुनि और माता अनसूया का आज्ञा लेकर दंडकारण्य की ओर प्रवेश किया। ( अरण्यकांड 1/1)
पुरातन मुनि- आगे बढ़ने पर उन्होंने बलि वैश्वेदेव और होम से पूजित और काला मृगचर्म धारण करने वाले ,फल-मूल खाने वाले, महा तेजस्वी पुरातन ऋषि से भेंट किया। उनके कहने पर ऋषि-मुनि और ब्राम्हणों को तंग करने और उन्हें मारकर खा जाने वाले नरभक्षी विराध का वध किया। (अरण्यकांड 4/14) नरभक्षी
विराध पूर्व जन्म में तुम्बुर नामक गंधर्व थे।
शरभंग मुनि और उनके आश्रम- भयंकर राक्षस विराध के वध के बाद तीनों शरभंग मुनि के आश्रम गए। (अरण्यकांड 5/1,2,3)
उस समय शरभंग मुनि से गंधर्व देवता सिद्ध और महर्षि उत्तम वचनों के द्वारा देवेन्द्र की स्तुति कर रहे थे ।और देवराज शरभंग मुनि के साथ वार्तालाप कर रहे थे । उन्होंने ही श्री राम को अपने आश्रम से थोड़ी दूर पर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम होने की जानकारी बताते हुए उनका पता बतलाए। (अरण्यकांड- 5/35 ,36)। शरभंग मुनि महा तेजस्वी थे ।उनके आश्रम में तरह-तरह के ऋषि मुनि उनसे भेंट करने आते थे। जिस समय राम वहाँ पहुँच थे। उनके पास 21 प्रकार से साधना करने वाले तपस्वी, मुनि जो ब्रह्म तेज से संपन्न थे ।वे सभी दक्षिण कोसल के ऋषि-मुनि अपने-अपने तपस्थली और आश्रमों से शरभंग मुनि के आश्रम में श्री रामचंद्र जी से भेंट करने पहुँचे थे। (अरण्यकांड 6/ 1, 2, 3 ,4 ,5)
यहाँ पंपासरोवर के पास तुंगभद्रा नदी क्षेत्र से, मंदाकिनी नदी और चित्रकूट पर्वत के क्षेत्र में निवास करने वाले ऋषि मुनि भी पधार कर श्री राम को राक्षसों से अपने तप की रक्षा करने के लिए अपनी पीड़ा प्रकट करने और मुक्ति के उपाय के लिए शरणागत वत्सल से राम के पास उपस्थित हुए थे।( अरण्यकांड 6/19) ।
21 प्रकार के ऋषि-मुनि और साधक इस प्रकार के थे:-
वैखानस, वालखिल्य, सम्प्रक्षाल , मरीचिप, बहुसंख्यक अश्मकुट्ट, पत्राहार , दन्तोलूखली , उन्मज्जक , गात्रशय्य, अशय्य, अनवकाशिक , सलिलाहार , वायुभक्ष , आकाशनिलय, स्थण्डिलशायी, ऊर्ध्ववासी, दान्त , आर्द्रपटवासा , सजप , तपोनिष्ठ और पंचाग्निसेवी ।
सूतीक्ष्ण मुनि- शरभंग ऋषि के आश्रम के पास ही थोड़ी दूर पर सुतीक्ष्ण मुनि के भी आश्रम थे। वे महान तेजस्वी और धर्मात्मा थे। उनका स्थान मंदाकिनी नदी के स्त्रोत की विपरीत दिशा में होना बताया गया है ।(अरण्यकांड 5/37)
सुतीक्ष्ण मुनि का आश्रम महान मेरु पर्वत के समान पहाड़ी स्थल में था। जहाँ वे ध्यानमग्न ,पद्मासन लगाकर ध्यान करते थे।(अरण्यकांड 7/ 2 से 5)। किवदंति अनुसार कोरबा जिले के सीतामढ़ी नामक स्थान में एक प्राचीन गुफा है। जहाँ सुतीक्ष्ण मुनि का भी एक तपस्थली थी । जबकि भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार अकलतरा के पास की दलहा पहाड़ में उनका आश्रम होना ज्यादा परिलक्षित लगते हैंः-
स गत्वा दूरमध्वानं नदीस्तीर्त्वा बहुदकाः।
ददर्श विमलं शैलं महामेरुमिवोन्नतम्।।२।। (अरण्यकांड 7/2)
अर्थात वे दूर तक मार्ग तय करके अगाध जल से भरी हुई बहुत नदियों को पार करते हुए जब आगे गए, तब उन्हें महान मेरु गिरी के समान एक अत्यंत ऊँचा पर्वत(पहाड़) दिखाई दिया, जो बड़ा ही निर्मल था। इस प्रकार की भौगोलिक स्थितिवाला पहाड़ और आश्रम है, इसे अब दलहा पहाड़ या दलहा पोड़ी के नाम से जाना जाता है। इसके आसपास बहुत सी नदियाँ सदानीरां रहती हैं। लीलावर ,खारून , हसदेव अरपा आदि । इस पहाड़ी के नीचे तराई में कुछ बड़े जलाशय और आश्रम आज भी है। जहाँ सायंकाल की संध्या उपासना के बाद सुतीक्ष्ण मुनि से उस समय भगवान राम ने अपने भाई और भार्या के साथ आश्रम में भेंट किया और भगवान राम ने रात्रिविश्राम भी किया ।(अरण्यकांड 7/22, 23 ,24)
उन्होंने कहा कि यहाँ आपको बहुत से ऐसे तालाब और सरोवर दिखाई देंगे। जिनमें प्रफुल्ल कमलों के समूह शोभा दे रहे होंगे । उनमें स्वच्छ जल भरे होंगे तथा कारण्डव आदि जल पक्षी सब ओर से फैल रहे होंगे । हे वत्स राम! जाइए वत्स सुमित्रा कुमार ! तुम भी जाओ दंडकारण्य के आश्रमों का दर्शन करके आप लोगों को फिर इसी आश्रम में आ जाना चाहिए ।( अरण्यकांड 8 / 14 .15 .16)
महर्षि सुतीक्ष्ण मुनि के बातों को मानते हुए श्री राम, जानकी और लक्ष्मण कहीं 10 महीने कहीं सालभर, कहीं 4 महीने, कहीं 5 या 6 महीने ,कहीं उससे भी अधिक 8 महीने, कहीं आधे मास अधिक अर्थात साढे 8 महीने ,कहीं तीन और कहीं आठ और 3 तथा 11 महीने तक श्री राम जी ने सुख पूर्वक मुनियों के आश्रमों पर रहते और अनुकूलता पाकर आनंद का अनुभव प्राप्त करते हुए 10 वर्ष व्यतीत कर डालें। जहाँ जिन मुनियों की भक्ति अधिक देखें वहाँ दोबारा जाते। इस तरह व्यतीत करते हुए सुतीक्ष्ण मुनि के पास वापस लौट आए । (अरण्यकांड11/ 23, 24 ,25, 26, 27)
महर्षि धर्मभृत और माण्डकर्णि मुनि के आश्रम-
एक बार ऐसे ही भ्रमण करते हुए तीनों महर्षि धर्मप्रीत के आश्रम पहुँच ।जो एक विशाल पंचाप्सर (परमेश्वरा) तालाब मल्हार के तट पर स्थित आश्रम पर पहुंँचे। उस समय सूर्य अस्ताचल को जाने लगे थे। उस समय वह सरोवर श्वेत कमलों से भरा हुआ था । जहाँ सारस, हंस और कलहंस, मत्स्य और हाथियों का झुंड क्रीड़ा कर रहे थे। उसी समय सरोवर में गाने बजाने का शब्द सुनाई दिया पर कोई दिखाई नहीं देता था ।इसका रहस्य श्रीराम ने महर्षि धर्मभृत से पूछा तब महर्षि धर्मप्रीत ने कहा कि- हे राम! यह सुंदर सरोवर जिसकी लंबाई चौड़ाई एक योजन की जान पड़ती है इसका नाम पंचाप्सर (परमेश्वरा) है। यह सर्वदा अगाधजल से भरा रहता है । इसका निर्माण माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा किया था। वह 10000 साल तक तीव्र तपस्या जलाशय में रहकर किया था । तब अग्नि देव आदि देवताओं ने सोचा कि हम उन्हें हमसे कोई स्थान चाहते हैं। इसलिए उनकी तपस्या को भंग करने के लिए पाँच प्रधान अप्सराओं को, जिनकी अंग कांति विद्युत के समान चंचल थी । उस मुनि को जिन्होंने लौकिक और पारलौकिक धर्म-अधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उसे भी इन अप्सराओं ने काम के अधीनकर, उनकी पत्नी बनकर तालाब के भीतर बने घर में छुप कर रहतीं हैं । मुनि ने तपस्या के प्रभाव से युवा अवस्था प्राप्त कर उन अप्सराओं के साथ क्रीड़ा- बिहार में लगी हुई हैं। उन्हीं अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनाई देती है। जो भूषणों की झंकार के साथ मिली हुई है । साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है।( अरण्यकांड 11/ 3 से लेकर 19 तक)
किवदंती अनुसार मल्हार के परमेश्वरा तालाब (पंचाप्सर) तालाब के भीतर सोने का महल है। जिस में निवास करने वाले रानियां (अप्सराएं ) कमल के फूल पर बैठकर तालाब के पूर्व में बने प्राचीन मंदिर में पूजा करने आती हैं। इस तालाब में पहले सफेद और गुलाबी रंग के कमल पुष्प हुआ करते थे। पर मत्स्य पालन के लिए के लिए सबको काट कर निकाल दिया गया। इसी माण्डकर्णि मुनि ने तप के प्रभाव के कारण परमेश्वरा तालाब की जल को गंगा नदी की जल की ही तरह पवित्र मानी जाती है ।इसी कारण अकला सप्तमी के दिन, आज भी उस मुनि के याद में कोई तालाब के जल से पातालेश्वर महादेव में जल चढ़ाते हैं, तो उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। उस जल से स्वयं भगवान शंकर प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं ,ऐसी मान्यता है। संभवत इसीलिए मल्हार के सिक्कों में 'म' अक्षर लिखा जाता है।
महर्षि अगस्त्य मुनि और उनके आश्रम- एक बार श्री राम ने सुतीक्ष्ण मुनि से अगस्त्य मुनि के बारे में उनके आश्रम के बारे में पूछा। तब महर्षि सुतीक्ष्ण मुनि ने कहा कि मैं भी यही चाहता था ,सौभाग्य से आपने स्वयं ही इस विषय में पूक्ष लिया।( अरण्यकांड 11/29 से 36)
उन्होंने कहा कि हे तात् ! यहाँ से 4 योजन दक्षिण चले जाइए। वहाँ अगस्त्य मुनि का बहुत बड़ा एवं सुंदर आश्रम मिलेगा।( अरण्यकांड 11/37)
भौगोलिक स्थिति के अनुसार यह मड़वारानी, बीरतराई से लेकर पहाड़गाँव के मध्य का क्षेत्र आता है।
वहाँ एक रात रुक कर उस वनखंड के किनारे दक्षिण दिशा की ओर जाएँ। इस प्रकार एक योजन जाने पर अनेक -अनेक वृक्षों से सुशोभित अगस्त्य मुनि का आश्रम मिलेगा।( अरण्यकांड 11/ 40, 41)
भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार यह क्षेत्र महाभारत में वर्णित ऋषभतीर्थ( उषभतित्थ), वर्तमान में दमाऊ दहरा के नाम से जानते हैं । परिलक्षित होता है। जो ओंकार की आकार में आकाश की ओर निरंतर उठता हुआ, आकाश की ओर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है ।
पहले इस क्षेत्र पर वातापी और इल्वल नामक दो क्रूर राक्षसों का राज्य था। इल्वल ब्राम्हण का रूप धारण कर संस्कृत बोलता और ब्राह्मणों को श्राद्ध का निमंत्रण देता और मेष (जीवशाक) बने वातापि को श्राद्ध कल्पोक्त विधि से ब्राह्मणों को खिला देता और बुलाने पर वतापी बाहर आओ ,कहने पर ब्राम्हणों का पेट फाड़कर निकल जाता था।जिसे अगस्त्य मुनि ने खाकर पचा देने और इल्वल को अग्नि तुल्य दृष्टि से राक्षस को दग्ध कर इस क्षेत्र को निश्चित कर डाला था। (अरण्यकांड 11/ 54- 66)
अगस्त्य अर्थात अगं पर्वतं स्तम्भयति इति अगस्त्यः। जो अगं अर्थात् पर्वत को स्तंभित कर दे उसे अगस्त्य कहा जाता है ।(अरण्यकांड 11/79 )
पहाड़ विंध्य-मैकल पर्वत को उत्तर और दक्षिण को ओंकार से दो भागों में बाँटता है , इसके एक भाग प पहाड़ी श्रृंखला तो दूसरे भाग में मैदानी भाग। भौगोलिक आधार पर ही उषभतित्थ( ऋषभ तीर्थ) जहाँ अगस्त्य मुनि का आश्रम विद्यमान रहा होगा वह पहाड़ के दक्षिण दिशा में ही विद्यमान था। जिसे 'दक्षिणा' कहा जाता था। दक्षिण दिशा ही अगस्त्य जी की दिशा है । (अरण्यकांड 11/84)
इसी दिशा में सातवाहन कालीन कुमारवरदत्त की गुंजी अभिलेख भी है। जो महत्वपूर्ण संदेश देते हैं। जहाँ हजारों गायों का दान देने का उल्लेख है। (उत्कीर्ण अभिलेख पृष्ठ 172- 173 ,बालचंद्र जैन )
जो इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि सातवाहन काल तक भी, इस क्षेत्र में एक बड़ा आश्रम संचालित थे ।जिसकी स्थापना रामायण काल में महर्षि अगस्त्य ने किया था।
इसी आश्रम में महर्षि अगस्त्य जी ने राम को विश्वकर्मा जी द्वारा बनाया गया धनुष जिसमें हीरे और स्वर्ण जड़ित थे , अमोघ उत्तम बाण दो, अक्षय तरकस साथ ही स्वर्ण जड़ित मुठ युक्त तलवार भी राम को दिए ।(अरण्यकांड 12 /32, 33)
फिर महर्षि अगस्त्य जी ने पंचवटी का पता बताते हुए जो भौगोलिक स्थिति बतलाया वह महत्वपूर्ण है।
वीर! यह जो महुओं का विशाल वन दिखाई देता है। इसके उत्तर से होकर जाना, उस मार्ग से जाते हुए आपको आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा ,उससे आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है। उसे पार करने के बाद एक पर्वत( पहाड़ )दिखाई देगा । उस पर्वत( पहाड़ )से थोड़ी ही दूर पर पंचवटी नाम से प्रसिद्ध सुंदर वन है ।जो सदा फूलों से सुशोभित रहता है ।(अरण्यकांड 13/21 ,22)
यह सभी भौगोलिक स्थिति के अनुसार जांजगीर-चांपा जिले के रैन खोल (रावण खोल) शत-प्रतिशत सही उतरता है । जो वृहद आश्रम के ठीक उत्तर दिशा में यथा स्थान पर पंचवटी नामक स्थान है। जहाँ राम, लक्ष्मण और सीता कुंड भी है।
पंचवटी जाते समय बीच में श्री रामचंद्र जी को एक विशालकाय गिद्ध मिला। (अरण्यकांड 14 /1 )और अगस्त्य आश्रम के ठीक ऊपरी पहाड़ी को, गृद्धराज पहाड़ी कहा जाता है। भौगोलिक वर्णन के अनुसार दमाऊदहरा (गुंजी) तीर्थ में बहने वाली झरना को लोकमान्यता के अनुसार गुप्त गोदावरी कहा जाता है ।जहाँ बड़े पैमाने पर स्नान-दान किया जाने का अभिलेखिय प्रमाण है। जो निश्चय ही दमाऊदहरा (गूंजी) तीर्थ में महर्षि अगस्त्य का आश्रम संचालित रहा होगा और यहांँ स्थित पंचवटी ही रामायण कालिक वास्तविक पंचवटी है़। ऐसा कहा जा सकता है।
हरि सिंह क्षत्री ,मल्हारवाले
मार्गदर्शक
जिला पुरातत्त्व संग्रहालय ,कोरबा