सोमवार, 1 अगस्त 2022

कोरबा जिले में भगवान राम के भौगोलिक और अन्य प्रमाण



 छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास विविध रंगों से भरा है ।यहाँ मानवीय सभ्यता के कुछ सबसे प्राचीन प्रमाण मिले हैं ।कुछ पौराणिक उल्लेखों के आधार पर यहाँ का इतिहास निर्धारण करने का प्रयास किया गया है ।1 हिंदुस्तान के हृदय में अवस्थित मध्यांँचल का दक्षिण पूर्व भाग इससे पहले दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। वह वर्तमान छत्तीसगढ़ गिरी श्रृंखलाओं से आवेष्ठित आच्छादित प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। यहाँ इतिहास का वैभव प्राचीन और अर्वाचीन युग में भी दृष्टिगत रहा है। इसी प्राचीन दक्षिण कोसल और वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में  स्थित जिला कोरबा जिसका गठन 25 मई 1998 को हुआ ,जो 22•21' उत्तरी अक्षांश और 82 • 40' पूर्वी देशांतर पर बसे हैं । जो 715000 हेक्टेयर तक फैले हैं। इसका अधिकांश भाग वनाच्छादित है । रामायण की कथा से ज्ञात होता है कि अयोध्या उत्तर कोसल के राजा दशरथ की बड़ी रानी कौसल्या दक्षिण कोसल छत्तीसगढ़ की ही थी। जो यहाँ की राजा भानुमंत की पुत्री थी। इसी कारण राम जी का इस भू-भाग पर आना-जाना बचपन से ही था। वे यहाँ के भू-भाग और व्यापारिक मार्गों से भी भलीभांति परिचित थे। इसलिए जब उन्होंने अपने पिता महाराज दशरथ के वचनों की रक्षा के लिए वनवास स्वीकार किया तो उन्होंने इसके लिए दक्षिण कोसल( छत्तीसगढ़ ) के वनाँचल को ही चुना। जो पूर्णतः आटविक राज्य था और दंडकारण्य का भाग था। दूसरा कारण मानवीय भी था, क्योंकि भगवान राम का अवतार एक मानव रूप में था। ऐसे में जब कोई व्यक्ति अपने पिता के घर से निर्वासित होने पर तो वे सर्वाधिक सुरक्षित अपने ननिहाल में ही रह सकते थे। इसलिए भी उन्होंने अपनी माता कौसल्या की जन्म भूमि दक्षिण कोसल को ही वनवास के लिए चुना। एक मान्यता के अनुसार जाँजगीर-चाँपा जिले का ग्राम कोसला को उनके जन्म भूमि माना जाता है। मल्हार उत्खनन के दौरान मल्हार से प्राप्त 'गामस कोसल्या' लिखा मृदा सील उत्खनन से प्राप्त हुआ है। जो वर्तमान में सागर विश्वविद्यालय में सुरक्षित है । इसीलिए उन्होंने अपने वनवास के अधिकांश समय दक्षिण कोसल में व्यतीत कर दिया । उन्होंने महर्षि सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम को ही अपना मुख्य केंद्र बनाते हुए 10 वर्ष व्यतीत कर दिए क्योंकि वनवास के दौरान माता कैकई ने 14 वर्ष तक राम के लिए दंडकारण्य में ही निवास करने की वर मांगी थी और यह क्षेत्र दंडकारण्य का ही भाग था।
क्वचिद् परिदशान मासानेक संवत्सरं क्वचित्।।24।।
क्वचिच्च चतुरो मासान् पंच षट् च परान क्वचित्।
अपरत्राधिकान् मासानध्यर्धमधिकं क्वचित्।।25।।
त्रीन् मासानष्टमासांश्च राघवो न्यवसत् सुखम्।
तत्र संवसतस्तस्य मुनीनामाश्रमेषु वै।।26।।
रमतश्चानुकूल्येन ययुः संवत्सरा दश। 
परिसृत्य च धर्मज्ञो राघवः सह सीतया ।।27।।
सुतीक्ष्णस्याश्रमपदं पुनरेवाजगाम ह।
अर्थात् श्री रामचंद्र जी बारी-बारी मुनियों के आश्रम में जाकर कहीं 10 महीने, कहीं साल भर, कहीं 4 महीने, कहीं पांच या छह महीने, कहीं उससे भी अधिक अर्थात 7 महीने, कहीं उससे भी अधिक 8 महीने , कहीं आधे मास अधिक साढ़े 8 महीने, कहीं 3 महीने और कहीं 8 महीने और 3 तथा 11 महीने तक, श्री रामचंद्र जी ने सुख पूर्वक निवास किया।  इस प्रकार ऋषि-मुनियों के आश्रम में रहते हुए उनके 10 वर्ष बीत गए। इस प्रकार सब ओर घूम फिरकर धर्म के ज्ञाता भगवान श्री राम, सीता के साथ फिर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम पर ही लौट आते थे।
     अब प्रश्न यह उठता है कि दक्षिण कोसल में सुतीक्ष्ण मुनि का आश्रम कहाँ है?  पर्यटन विभाग सरभंजा ग्राम मैनपाट को शरभंग ऋषि का आश्रम मानती है। पर्यटन विभाग राम के साथ महर्षि सुतीक्ष्ण के साथ महर्षि दंतोली आश्रम मैनपाट पहुँचने की बात भी कहती है । परंतु उनका आश्रम का उल्लेख स्पष्ट नहीं है , पर वाल्मीकि रामायण और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार राम का रामगढ़ से अंबिकापुर से कोरबा जिले की सुवरलोट तक पहुँचने का वनमार्ग जो मेरे द्वारा खोज में आया है, वह प्रस्तुत है।
   त्रेता युग ही नहीं, हर युग में छत्तीसगढ़ के वनों में उच्च कोटि के साधकों तपस्वियों और मुनियों का साधना स्थल और आश्रम विद्यमान रहे हैं । उन्हीं तपस्वियों और साधकों की ऊर्जा का प्रभाव है कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी आज भी सरलता, सहजता और वसुधैवकुटुंबकम् की भावना को आत्मसात कर रखा है । कोरबा जिले का वनाँचल लाम पहाड़ से सुवरलोट तक की पहाड़ियों और जंगलों में खासकर लेमरू-पुटका क्षेत्र के वनाँचल में पानी और कंदमूलों के अधिकता ने साधकों को यहाँ के साधकों को यहांँ के वनों में आश्रम बनाकर साधना के लिए प्रेरित किया तो नरभक्षी और राक्षसों को भी खूब भाया । वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड सर्ग 6 के 2/3/4/5 श्लोक के अनुसार  इस क्षेत्र  के ऋषि-मुनियों का वर्णन है:-


 वैखानसा वालखिल्याः सम्प्रक्षाला मरीचिपाः।
 अश्मकुट्टाश्च बहवः पत्राहाराश्च तापसाः।।२।।
 दंतोलूखलिनश्चैव तथैवोन्मज्जकाः परे।
 गात्रशय्या अशय्याश्च तथैवानवकाशिकाः ।।३।।
 मुनयः सलिलाहारा वायुभक्षास्तथापरे।
 आकाशनिलयाश्चैव तथा स्थण्डिलशायिनः ।।४।।
 तथोर्ध्ववासिनो दांतास्तथाऽऽर्द्रपटवाससः ।ऐ
 सजपाश्च तपोनिष्ठास्तथा पंचतपोऽन्विता ।।५।।
    अर्थात् उनमें वैखानस (ऋषियों का एक समुदाय जो ब्रह्मा जी के नख से पैदा हुए), वालखिल्य(ब्रम्हा जी के रोम से प्रगट हुए मुनियों का समूह) ,सम्प्रभाल  (जो भोजन के बाद अपने बर्तन धो पोंछ कर रख देते हैं, दूसरे समय के लिए कुछ नहीं बचाते ),मरीचिप( सूर्य अथवा चंद्रमा की किरणों का पान कर के रहने वाले) बहुसंख्यक अश्मकुट्ट (कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाने वाले)पत्राहार( पत्तों का आहार करने वाले), धन्तोलूखली( दांतो से ही उखल का काम लेने वाले ),उन्मज्जक (कंठ तक पानी में डूबकर तपस्या करने वाले), गात्रशय्य ( शरीर से ही शैय्या का काम लेने वालेअर्थात् बिना बिछौने के ही भुजा पर सिर रखकर सोने वाले )अशय्य (शय्या के साधनों से रहित), अनवकाशिक (निरंतर सत्कर्म में लगे रहने के कारण कभी अवकाश न पाने वाले ),सलिलाहार( जल पीकर रहने वाले ),वायुभक्ष( हवा पीकर जीवन निर्वाह करने वाले) आकाशनिलय ( खुले मैदान में रहने वाले),स्थण्डिलशायी (वेदी पर सोने वाले)उर्ध्ववासी ( पर्वत शिखर आदि ऊँचे स्थानों में निवास करने वाले),दान्त( मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले ), आर्द्रपरवासा ( सदा भीगे कपड़े पहनने वाले), सजप ( निरंतर जप करने वाले),तपोनिष्ठ( तपस्या अथवा परमात्मा तत्व के विचार में स्थित रहने वाले) और पंचाग्नि सेवी( गर्मी के मौसम में ऊपर से सूर्य का और चारों ओर से अग्नि का ताप सहन करने वाले) इस प्रकार के संत यहाँ पर ,दक्षिण कोसल के जंगलों में  जप-तप और साधना कर निवास करते थे।
      इन वानप्रस्थी मुनियों ने राक्षसों के अत्याचार से अपनी रक्षा के लिए श्री रामचंद्र से प्रार्थना के लिए की जिन्हें श्रीराम ने राक्षसों को मुक्ति दिलाने का आश्वासन शरभंग मुनि के आश्रम में दिए। 
      इस प्रकार वानप्रस्थ मुनियों को आश्वासन देकर मार्ग के ऋषि-मुनि से भेंट करते राक्षसों का संहार करते हुए अंबिकापुर जिले के रामगढ़ पहुँचे ।वहाँ पर चौमासा व्यतीत कर ,महेशपुर होते हुए कोरबा जिले के लामपहाड़ पार करते हुए को कोकोंदरी गुफा पहुँचे, जहाँ नरभक्षी दानवों का निवास स्थान था। वे साधकों तथा ऋषि-मुनियों को परेशान करते थे । उन्हें मारकर उस क्षेत्र के तपस्वियों को निष्कंटक  कर नकिया ग्राम अंतर्गत रक्साद्वारी स्थित गुफा में निवासरत नरभक्षी राक्षस का वध किया। जो इस मार्ग से चलने वाले ब्राह्मणों और साधकों को मारकर खा जाते थे। यहाँ से उनका वध करने के बाद देवपहरी स्थित गोविंदझुंझा पहुँचे ।जहाँ राम-पद चिन्ह बना हुआ है। वहाँ की प्राकृतिक छटा का आनंद लेकर  वे महादेव पहरी में महादेव का दर्शन कर दानव गुफा में निवासरत राक्षस का वध कर ग्राम सोनारी स्थित सिद्ध आश्रम शेरों वाली गुफा और साधना स्थल धसकन टुकु पर पहुँचे । उन दिनों यह क्षेत्र सिद्ध- साधकों का तपस्थली थे। यहाँ रात्रि विश्राम कर दूसरे दिन महादेव पहरी में पुनः महादेव का दर्शन कर  अत्रि मुनि के आश्रम अरेतरा पहुंँचकर रमेल पहाड़ में स्थित कंदरा में कुछ दिन कुछ दिन व्यतीत किए। उन दिनों यहाँ मानघोघर नदी के दोनों किनारों पर स्थित कंदराओं में अनेक मुनिगण साधना करते थे।  उन सब से भेंट करके , नदी किनारे चलते-चलते छातीबहार के आसपास के कंदराओं में साधना कर रहे तपस्वियों से भेंट कर वहाँ स्थित खाम्भ ऋषि से भेंट करने भूड़ूमाटी के खाममाड़ा गुफा में साधना कर रहे  साधनास्थल पहुँचें। इस तरह अनेक सिद्ध साधकों से भेंट करते फुटकापहाड़ स्थित भगवान कचहरी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पहुँचकर ऋषि-मुनियों, साधकों और वनवासियों के बीच दरबार लगाया। जिसके कारण इस स्थल का नाम भगवान कचहरी पड़ गया । ऐसा आदिवासियों की मान्यता है । उसी दिन की याद में  हर कार्तिक पूर्णिमा के दिन आसपास के आदिवासी  यहाँआकर पूजा-अर्चना करते हैं ।कुछ सालों से यहाँ रामायण पाठ भी होने लगा है।
        उस समय फुटका पहाड़ क्षेत्र में अनेक ऋषि- मुनियों का आश्रम था ।इसका कारण, इस क्षेत्र में घने और शांत निर्जन वन ,कंदमूलों की अधिकता और पर्याप्त जल स्रोतों तथा साधना करने के लिए अनेक प्राकृतिक गुफाएँ और भौगोलिक परिस्थितियों ने ऋषि-मुनियों और साधकों को खूब भाया तो दानवों को भी । इसीलिए राम ने वनवास के दौरान इस क्षेत्र के राक्षसों का वध करते रहे और ऋषि मुनियों का रक्षण भी करते रहे। जब उन्होंने दरबार लगाया था , उसी समय कोरबा के आसपास सीतामढ़ी  क्षेत्र में महर्षि सुतीक्ष्ण, उन दिनों साधना कर रहे थे, का पता चलने पर उनसे भेंट करने निकल पड़े। इसके लिए उन्होंने प्राचीन वनमार्ग का ही चयन कर बाबामंडिल गुफा, सतरेंगा, महादेव पहरी होते वहाँ से किनारे-किनारे रानी गुफा, अजगरबहार होते हुए परसाखोल ग्राम में मतरेंगा खोल पहुंँचकर वहाँ मतंग ऋषि से भेंट किया।  वहां के साधक से मार्ग की जानकारी लेकर बुंदेली आश्रम पहुँच ।यहाँ से सीतामढ़ी कोरबा स्थित प्राचीन गुफा में साधना  कर रहे सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट करने पहुँचकर भेंट किया। यह उनका स्थाई आश्रम नहीं था। उनके आश्रम के बारे में अरण्यकांड 7/2 में वर्णन है।
स गत्वा दूरमध्वानं नदीस्तीर्त्वा बहुदकाः।
ददर्श विमलं शैलं महामेरुमिवोन्नतम्।। 2।।  वा.रा.अरण्यकांड 7/2
अर्थात् वे दूर तक मार्ग तय करके अगाध जल से भरी हुई बहुत सी नदियों को पार करते हुए जब आगे गए तब उन्हें महान मेरु गिरी के समान अत्यंत ऊँचा पर्वत दिखाई दिया जो बड़ा ही निर्मल था।
     भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार यह पहाड़ अकलतरा के पास स्थित दलहा पहाड़ ही जान पड़ता है ।जिसके नीचे तराई में अनेक बड़े जलाशय और आज भी परिलक्षित हैं। जहाँ सुतीक्ष्ण मुनि के आदेश पर लंबे समय तक निवास किया यहीं से आसपास घूम कर पुनः बार-बार लौटते रहे थे।
गम्यतां वत्स सौमित्रे भवानपि च गच्छन्तु। 
आगन्तव्यं च ते दृष्ट्वा पुनरेवाश्रमं प्रति ।।6।।
 अर्थात्  श्रीराम ! जाइए वत्स सुमित्राकुमार तुम भी जाओ। दंडकारण्य के आश्रमों का दर्शन करके आप लोगों को इसी आश्रम में आ जाना है । इसी तरह एक बार राम ,लक्ष्मण और सीता आश्रमों में घूमते हुए धर्मभृत नामक मुनि के आश्रम पहुँच।  वहांँ स्वच्छ जल से भरे हुए उस रमणीय सरोवर में शाम होने पर गान- बजाने का शब्द सुना और किसी को बजाते और गाते हुए नहीं देख कर राम और लक्ष्मण ने इस रहस्य के बारे में मुनि से जानना चाहा तब धर्मभृत मुनि ने 'पंचाप्सर सरोवर ' के बारे में वर्णन करते हुए कहा कि इस जल से भरी हुई सरोवर को मांडकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इसका निर्माण किया था।  महामुनि मांडकर्णी ने जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए 10000 वर्षों तक तीव्र तपस्या की थी। तब उनके तपाग्नि से व्यथित अग्नि आदि देवताओं ने उनके तप में विघ्न डालने के लिए पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया। जिनका अंग कांति विद्युत के समान चंचल थी । इन अप्सराओं ने लौकिक और पारलौकिक धर्माधर्म की ज्ञान रखने वाले मुनि को काम के अधीन कर लिया।  वे सभी अप्सराएँ उनकी पत्नी बनकर तालाब के भीतर बने घर में ,जल के भीतर मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं। उन पाँच अप्सराओं की वादन और गायन की ध्वनि ही सुनाई पड़ती है। वही अप्सराएँ कमल की पत्ते पर बैठकर यदा-कदा शिवजी की पूजा करने पर आती है । ऐसी जनश्रुति मल्हार के परमेश्वरा तालाब के बारे में सुना जाता है । जो सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम के दो-तीन योजन दूर पश्चिम में स्थित है । भौगोलिक दृष्टिकोण मल्हार के तालाब के पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही दिशा में प्राचीन शिव मंदिर के अवशेष हैं। जिससे जान पड़ता है।  संभवतः मल्हार के प्राचीन सिक्कों और सीलों में 'म' भी इसी मांडकर्णि मुनि के कारण ही लिखा जाता रहा हो। 
       इस तरह आश्रमों में घूमते हुए जब वनवास के 10 वर्ष बीत गए तब फिर एक दिन सुतीक्ष्ण मुनि से राम ने कहा भगवन् मैंने इस वन में कहीं मुनि श्रेष्ठ अगस्त्य के निवास करते हैं , के बारे में सुना है। महर्षि का सुंदर आश्रम कहाँ है ? तब प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सुतीक्ष्ण मुनि ने कहा कि मेरी भी यही इच्छा थी। सौभाग्य से आप स्वयं ही मुझसे वहाँ जाने के विषय में  पूछ रहे हैं। तात्!   यहांँ से 4 योजन दूर दक्षिण में चले जाइए। जहाँ आपको महर्षि अगस्त्य  जी के छोटे भाई अग्निजिव्ह जी का आश्रम,  नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव से गुंजित हो रहे रमणीय आश्रम के पास कमलमंडित सरोवर है । जो स्वच्छ जल से भरे रहते हैं। जहाँ हंस और कारंडव आदि पक्षी एवं चक्रवाक कलरव कर उनकी शोभा बढ़ाते हैं । जो भौगोलिक दृष्टि से कोरबा कनकी और बीरतराई का क्षेत्र जान पड़ता है ।जहाँ सुंदर सरोवर और पक्षियों का झुंड आज भी आते रहते हैं।  वहाँ से एक योजन दूर दक्षिण में अगस्त जी का आश्रम है। जो भौगोलिक दृष्टि से महाभारत कालीन उषभतित्थ ही जान पड़ता है । जहाँ त्रेता युग में अगस्त ऋषि का आश्रम था ।जहाँ हजारों गाय दान दी जाती रही है। यह परंपरा सातवाहन काल तक था। जिसका शिलालेखिय प्रमाण भी है। इसलिए यह क्षेत्र उषभ (ऋषभ) तीर्थ कहलाता था।  यहाँ अनेक सिद्ध साधक साधना करते थे ।अगस्त्य ऋषि के मार्गदर्शन में यहाँ दिव्यास्त्रों की साधना भी होती थी । इसे अगस्त्य जी द्वारा राम और लक्ष्मण को दिए गए थे।  इस क्षेत्र के पेड़ों के बारे में भी वर्णन है । श्रीराम ने यहाँ निवार ,जलकदंब, कटहल,  साखु, अशोक, तिनिश , चिरिबिल्व, महुआ, बेल ,तेंदु तथा और भी सैकड़ों जंगली वृक्ष और गज समूह देखे थे । जो इस क्षेत्र की स्वाभाविक और प्राकृतिक विशेषता भी है ।दिव्यास्त्रों के निर्माण के लिए यूरेनियम की आवश्यकता होती है ,जो इस क्षेत्र में पाया जाता है । इन विशेषताओं के आधार पर महर्षि अगस्त्य जी का आश्रम जांजगीर-चांपा जिले का ऋषभ तीर्थ( दमाऊ दहरा) ही माना जाना चाहिए। महर्षि अगस्त्य की महिमा से इस आश्रम के आसपास निर्वैरता आदि गुरु संपादन में समर्थ तथा क्रूरकर्मा राक्षसों के लिए, दुर्जय होने कारण यह संपूर्ण दिशा नाम से भी तीनों लोकों में 'दक्षिणा' कहलाई ।इसी नाम से विख्यात हुई । इसे अगस्त्य की दिशा भी कहते हैं । 
      कुछ समय अगस्त आश्रम में रहने के बाद राम ने महर्षि से शेष वनवास व्यतीत करने के लिए उपयुक्त वन की सुविधाओं वाले स्थान के बारे में पूछा । तब महर्षि ने कहा
इतो द्वियोजने तात बहूमूल फलोदकः।
देशो बहूमृगः श्रीमान् पंचवट्यभिविश्रुतः ।।13।। 13 सर्ग
अर्थात् तात्!  यहाँ से 2 योजन की दूरी पर पंचवटी नाम से विख्यात एक बहुत ही सुंदर स्थान है ।जहाँ बहुत तेज मृग रहते हैं तथा फल-मूल और जल की अधिक सुविधा है। वही जाकर लक्ष्मण के साथ आप आश्रम बनाकर पिता की यथोक्त आज्ञा का पालन करते हुए ,वहां सिर्फ सुख पूर्वक निवास कीजिए।  वीर! यह जो महुआ का विशाल वन दिखाई देता है ,इसके उत्तर से होकर जाना इस मार्ग से जाते हुए आपको आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा । उससे आगे कुछ दूर पर ऊँचा मैदान है , उसे पार करने के बाद एक पर्वत दिखाई देगा।  उस पर्वत से थोड़ी दूर पर पंचवटी नाम से प्रसिद्ध सुंदर वन है। जो सदा फूलों से सुशोभित रहता है । जहाँ मार्ग में जाते हुए गृधराज पहाड़ है, जो जटायु का निवास स्थान था। जहाँ से पंचवटी पर सीधी नजर रखी जा सकती है। यही राम का जटायु से भेंट हुआ था। तो सीता हरण के बाद रावण और जटायु का युद्ध भी हुआ था। यहाँ रैनखोल ( रावण खोल ) में हेलीपैड नुमा स्थान भी है। तो मारीच गुफा भी है। यहीं पर शूर्पणखा ने राम को देखा और यहीं उनकी लक्ष्मण ने नाक भी काटी ।यहाँ पंचवटी के पास एक जलधारा बहती है, जिसे गुप्त गोदावरी भी कहा जाता है । यहाँ से लगभग 28 मील दूर खरौद है, इसे खर और दूषण की नगरी कहा जाता है। यहाँ से लगभग इतने ही दूर पर ग्राम कोसला है जो माता कौसल्या की नगरी भी है ।
      पंचवटी के आसपास पुष्पों गुल्मों तथा लतावल्लरियों युक्त साल, ताल, तमाल खजूर, कटहल ,कदम्ब,  तितिश, पुनाग, आम, अशोक, तिलक ,केवड़ा चंबा, स्पंदन ,पताश, लकुश,धव  आदि के वृक्ष हैं । 
  उपर्युक्त भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार यह स्थान जांजगीर-चांपा जिले का रैनखोल  में स्थित पंचवटी नामक स्थान ही है ,न कि वर्तमान नासिक।
राम लक्ष्मण उच्च कोटि के कलाकार भी थे जो वाल्मीकि रामायण के श्लोकों से पता चलता है।
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थ विभागवित्।
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम् ।।28।। अयोध्याकांड  सर्ग-1 पृष्ठ-223
 अर्थात् विहार( क्रीडा या मनोरंजन )के उपयोग में आने वाले संगीत वाद्य और चित्रकारी आदि शिल्पो में भी राम विशेषज्ञ थे । अर्थों के विभाजन का भी राम को सम्यक ज्ञान था। वह हाथियों और घोड़ों पर चलने और उन्हें भांति भांति के चालों की शिक्षा देने में भी निपुण थे।
लक्ष्मण भी राम ही के तरह सर्वगुण संपन्न थे और सभी कला में दक्ष थे।
पर्णशाला सुविपुलां तत्र संघातमृत्तिकाम्। 
सुस्तम्भां मस्करैर्दीघैः कृतवंशां  सुशोभनाम् ।।21।।
शमीशाखाभिरास्तीर्य दृढपाशावपाशिताम् ।
कुशकाशशरैः पर्णैः सुपरिच्छादिताम् तथा।।22।।
समीकृतलतां रम्यां चकार सुमहाबलः।
निवासं  राघवस्यार्थे प्रेक्षणीयमनुत्तमम्।।23।। अर.कांड15/ 21-22-23 पृ.589
अर्थात् वह आश्रम एक अत्यंत विस्तृत पर्णशाला के रूप में बनाया गया था ।महाबली लक्ष्मण ने पहले वहाँ मिट्टी एकत्र करके दीवार खड़ी की । फिर उसमें सुंदर एवं सुदृढ़ खंभे लगाए । खंभों के ऊपर बड़े-बड़े बांस तिरछे  करके रखे । बांसों के रख दिए जाने पर वह कुटी बड़ी सुंदर दिखाई देने लगी।  फिर उन पैसों पर उन्होंने शमी वृक्ष की शाखाएं फैला दी और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बांध दिया। उसके बाद से कुश कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उस पर्णशाला को भलीभांति छा दिया तथा नीचे की भूमि को बराबर करके उसे कुटी को बड़ा रमणीय बना दिया । इस प्रकार लक्ष्मण ने श्री रामचंद्र जी के लिए परम उत्तम निवास गृह बना दिया जो देखने योग्य ही बनता था।
          इस तरह लक्ष्मण अयोध्या से निकलकर अपनी कला के ज्ञान में व्यापक उन्नति करते गए और अपनी यात्रा प्रसंगों को यथासंभव अपनी कला के रूप में प्रदर्शित भी करते गए जिस पर नए सिरे से व्यापक विचार करने की आवश्यकता है।
         सीता हरण के बाद सीता के तलाश में जब राम और लक्ष्मण कोरबा जिले के दूल्हा-दुल्ही पहाड़ी पहुँच। जहाँ ईश्वर को याद करते हुए राम-लक्ष्मण का चित्र बनाए गए  तो सीता के साथ हिरण का भी है। यहीं से 3 किलोमीटर दूर भारत देश का एकमात्र शैलचित्र सीताहरण की कथानक बना हुआ है ।जिससे सीता चौकी के नाम से जाना जाता है तो सीतालेखनी के नाम से भी जाना जाता है । यह दोनों स्थान कोरबा जिले के करतला विकासखंड अंतर्गत सुवरलोट ग्राम में हैं।  जहाँ से आगे जाने पर गिद्धराज पहाड़ी पड़ता है । उसी से आगे जाने पर किंधा गाँव,  बाली-दुदुंभी युद्ध वाली गुफा , रामझरना , शिवरीनारायण, खरौद आदि स्थल सब पंचवटी के दक्षिण दिशा में ही पड़ता है ।आगे बढ़ने पर शैलचित्रों में रावण के चित्रों का भी प्रादुर्भाव होता है।
अतः भौगोलिक परिस्थितियों और वाल्मीकि रामायण में उद्धृत श्लोकों के अनुसार त्रेता युग में  भगवान राम , सीता और लक्ष्मण जी कोरबा जिले के कोकोंदरी  गुफा, रक्साद्वारी,नकिया, देवपहरी, गोविन्द झूंझा, सोनारी के दानव गुफा, शेरोंवाली गुफा, हाथामाड़ा , धसकनटूकु, अरेतरा के अत्रि आश्रम, रमेल पहाड़ हाथामाड़ा, छातीमाड़ा (छाती बहार ) ,  बरहाझरिया ,  भुड़ुमाटी  के खाममाड़ा, भगवान कचहरी ,बाबामंडिल गुफा ,सतरेंगा ,रानीगुफा, अजगर बहार,  बेलागुफा मतरेंगाखोला (परसाखोल),  बुंदेली गुफा,  सीतामढ़ी गुफा मंदिर,  महादेवखोला कोरकोमा, कनकी,  बीरतराई पहाड़गाँव, सुवरलोट के दूल्हा-दूल्ही और सीता चौकी नामक स्थल भगवान राम का वन गमन क्षेत्र रहा है । जिसमें आज केवल सीतामढ़ी गुफा मंदिर ही शहरी क्षेत्र में आ गया है, बाँकी सभी जगह आज भी पूर्णत:आटविक (घने वन ) परिक्षेत्र में है । जिसका विकास , चिन्हांकन  और रामवनगमन क्षेत्र के मूर्त और अमूर्त रूप में जोड़ने और नए सिरे से अध्ययन करने की आवश्यकता है।
                                                              हरि सिंह क्षत्री
                                                                 मार्गदर्शक 
                                                  जिला पुरातत्त्व संग्रहालय ,कोरबा
1/ राकेश कुमार सिंह डाक्टर बृजकिशोर प्रसाद जैन मत और बघेला की जैन मूर्तियां प्रोसीडिंग्स 10 पेज 302
2/ डॉ रविंद्र नाथ मिश्र सिली पचराही के महानिदेशक डॉ रमन सिंह प्रोसीडिंग्स पेज 345
3/ वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 11 /26- 27 पृष्ठ 567
4/  श्री राम वन गमन पथ छत्तीसगढ़ पृष्ठ 11
5/ वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 6/25 पृष्ठ 565 -566
6/ वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड सर्ग 11/ 23- 24 -25- 26- 27 पृष्ठ।           576
7/ वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड सर्ग 8/16 पृष्ठ- 569
8/ वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 11 पृष्ठ 575
9/ वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 11 पृष्ठ 576
10/  वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड स्वर्ग 11 पृष्ठ 577
11/  वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 11/ 40-41 पृष्ठ 577
12/  वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड स्वर्ग 11 /84 पृष्ठ 580
13/  वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 13 /13 पृष्ठ 584
14/  वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड सर्ग 13 /2-122 पृष्ठ 585
15/ वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड सर्व 15/ 16 -17 -18 पृष्ठ 589
16/ वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड प्रथम सर्ग 1/28 पृष्ठ 223
17/ वाल्मीकि रामायण अरण्य कांड सर्ग 15 21-23 पृष्ठ 589