कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने जीवन को ही एक किताब बना लेते हैं ,और जिनकी यादें हमेशा मन मस्तिष्क में बनी रहती है । ऐसे ही एक महामना थे पद्मश्री डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर 'हरिभाऊ 'जी। आपका जन्म मध्यप्रदेश के नीमच में 4 मई 1919 को हुआ था। आप की माता श्रीमती सीता श्रीधर वाकणकर जी एवं पिता श्री श्रीधर सिद्धनाथ वाकणकर जी थे । आपने एम.ए. ,पीएचडी एवंं जी.डी. आर्ट से शिक्षा प्राप्त कर निदेेेशक संग्रहालय ,विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन , केे पद पर कार्यरत रहे।आप अनेक जगहों पर संस्थापक, महामंत्री ,बौद्धिक प्रमुख ,संस्थापक, संचालक भी रहे ।संचालक ललित कला ,और शैलचित्र शोध संस्थान भी रहे। आप बाबासाहेब आप्टे इतिहास संकलन समिति ,मध्य प्रदेश और गुजरात के प्रमुख भी रहे। आप एक कुशल चित्रकार भी थे । आपने नर्मदा, चंबल और वैदिकयुगीय सरस्वती नदी की पुरातात्त्विक सर्वैक्षण की। आप असम तथा दक्षिण भारत में पदयात्रा कर अनेक सर्वेक्षण कार्य भी किए।
आपने महेश्वर में 1954 में जो उत्खनन कार्य प्रारंभ किए ,फिर 1955 नवादा टोली ,1959 में इंद्रगढ़, 1960 मनौती और आगरा ,1966 कायथा, ,भीमबेटका 1971 -78 ,1974-75 में मंंदसौर और आजादनगर इंदौर , तथा दंगबाड़ा ,और 1980 रुनिजाआदि में सतत उत्खनन करते रहे । इसके अलावा आपने देश से बाहर इंग्लैंड और फ्रांस में भी उत्खनन कार्य उन सभी जगहों की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को उजागर करते रहे । आपकी इन्हीं कार्यों के लिए सन् 1975 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया गया। आप एक कलाकार और लेखक भी थे।
आपके पास सिक्के, मुद्राएं ,ताम्रपत्र, शिलालेखोंं, मिट्टी की बनी मूर्तियाँ, पत्थर के औजार , हड्डियों के गहने , रेखा चित्र चलचित्र आदि के हजारों संग्रह थे । सन् १९८७ में उज्जैन में एक शोध संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। उस समय छत्तीसगढ़ भी अविभाजित मध्यप्रदेश का ही हिस्सा था। मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी और राष्ट्रपति पुरस्कृत शिक्षक स्वर्गीय श्री रघुनंदन प्रसाद पांडेय जी शिविर में भाग लेने और शोधपत्र वाचन करने उज्जैन गए थे ।उज्जैन में आयोजित शोध संगोष्ठी में अनेक मूर्धन्य विद्वान आए हुए थे। पर पिताजी ने दो ही विद्वानों की जिक्र विशेष रूप से किया था। पहले थे पद्श्री डाक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर जी और दूसरे थे राष्ट्रकवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' जी।
उस शोध-संगोष्ठी के लिए पिताजी ने अपने शोधपत्र में 'अपीलक' और 'प्रसन्नमात्र' की सिक्कों पर अपना आलेख तैयार किया था। उस समय ज्ञात सिक्कों में 'अपीलक' का एकमात्र सिक्का, स्वर्गीय श्री लोचन प्रसाद पांडेय जी को महानदी के रेत में प्राप्त हुआ था। और जो दूसरी सिक्का मिला ,वह मल्हार में मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी को प्राप्त हुआ था , और दूसरी सिक्का जो तांबे से बना एकमात्र सिक्का था, वह 'प्रसन्नमात्र' जी का था। जब पिताजी ने अपने शोधपत्र का वाचन किया। तब उसे देखने के लिए श्री वाकणकर जी और स्वर्गीय श्री शिवमंगल सिंंह 'सुमन' जी लालायित थे ।उन दोनों ने इस तरह के सिक्के होने के बात एक सिरे से नकार दिए थे। पर जब 'अपीलक' की सिक्के को दिखाया तब 'प्रसन्नमात्र' की सिक्के की होने के बात भी दोनों ने मानकर, उसे दिखाने के लिए कहा तब पिताजी ने शर्त रखी कि आप दोनों को मल्हार आना पड़ेगा। और तब वहीं आप लोगों को 'प्रसन्नमात्र' की सिक्के के अलावा और भी बहुत कुछ दिखाएंगे । इस बात के लिए स्वर्गीय श्री पांडेय जी ने भी हामी भरी और तब दोनों ही विद्वान मल्हार आने को तैयार हो गए ।दुर्भाग्य से 'सुमन' जी का समय निर्धारित नहीं हो पा रहे थे ।इधर पत्राचार कर उन दोनों का अभिनंदन मल्हार में करने की तिथि निर्धारित की गई। पर विभिन्न कारणों से राष्ट्रकवि 'सुमन' जी मल्हार नहीं आ पाए। पर नवंबर 1987 में पुरातत्त्व पद्मश्री डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर जी मल्हार आए ।आप उज्जैन से रेल यात्रा कर पहले बिलासपुर पहुँचे ।वहाँ से संतोष भवन के मालिक श्री नारायण आहूजा जी के निजी वाहन से मल्हार आने का कार्यक्रम बना। बिलासपुर से मल्हार की यात्रा में आपके साथ स्वर्गीय श्री श्यामलाल चतुर्वेदी जी, अधिवक्ता श्री साधुलाल गुप्ता जी और आपके एक और अभिन्न मित्र श्री नंदकिशोर शुक्ला जी एंबेसडर कार से मल्हार पहुँचे । मल्हार पहुँचकर सर्वप्रथम आप देऊर मंदिर गए । वहाँ की मूर्तियों की भव्यता से आप बहुत प्रभावित हुए थे ।देऊरमंदिर के खुले प्रांगण में स्थित भीम और कीचक प्रतिमाओं को देखकर ,भीम को आपने बलराम की मूर्ति होने की संभावना व्यक्त किया तो कीचक की प्रतिमा को आपने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा घोषित कर उनके दोनोंं कानों के आभूषणों के अंतर और दोनों भौहों के मध्य तीसरे नेत्र को प्रमाण बताया। वहीं प्रांगण मेंं रखी प्रतिमाओं की विलक्षणता सेे भी प्रभावित हुए बिना रह नहीं सके। फिर आप टीन के शेड में रखे मूर्तियों को भी अध्ययन करते रहे और उनके बारे मेंं जानकारी देते रहे ।पिताजी श्री ठाकुर गुलाब सिंह जी मूर्तियों के बारे में बताते गए । इस दौरान ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहा । उस वार्तालाप से सर्वाधिक लाभ मुझे प्राप्त हुआ। मैं पिताजी के साथ अक्सर जातेे रहता था। वे मुझे पुरातत्त्व की बारीकियाँ समझाते रहते थे। और यहाँ तो बात पुरातत्त्व विज्ञान के महामना से सीधे ज्ञान प्राप्त करनेे की रही थी। लंबे समय बीतने के बाद वहाँ से सभी पातालेश्वर मंदिर पहुँचे। पिताजी तो उन्हीं के साथ कार में बैठ गए और मैं साइकिल से थोड़ी देर में पातालेश्वर मंदिर पहुँच गया। वहाँ वे उस मंदिर को देखने लगे । जिसका उत्खनन जमींदारी काल में मेरे परदादा स्वर्गीय ठाकुर श्री उत्तम सिंह के मार्गदर्शन में स्वर्गिय श्री बलदेव सिंह जी ने सन् १९१३ ईस्वी में करवाये थे । जहाँ के हनुमान चबूतरा के उत्खनन के दौरान चबूतरे में उग आए, सेम्हल के विशाल वृक्ष को कटवा रहेे थे। वहाँ स्थित हनुमान जी ने पहलेे ही स्वप्न में आकर बता दिया था कि उत्खनन के मुखिया को भक्षण करूँगा। और स्वप्न की बात ,सत्य भी हुआ । दूसरी तरफ गिरने वाला विशाल सेम्हल का पेड़ घूमकर , परदादा बलदेव सिंह के सीने पर गिर गया। और वही उनका देहांत हो गया था। पर तब तक पातालेश्वर मंदिर की सौगात मल्हार वालोंं को मिल गया था। तभी से उस जगह हर महाशिवरात्रि से 15 दिवसीय मेले का आयोजन भी होता है । इन बातोंं को बताते हुए, मंदिर की बारीकियों को भी पिता जी सभी अतिथियों को बताते रहे। सभी मंत्रमुग्ध होकर पातालेश्वर मंदिर की कलात्मकता को देखते रहे। मंदिर को देखने के बाद सभी परिसर में बने, टीन के सेड में रखी मूर्तियों की बारीकियों से अवलोकन करते रहे । वे सभी मूर्तियों की विलक्षणता से प्रभावित थे । उन लोगों को पिताजी बताते रहे । वाकणकर जी ने विष्णु जी की प्रतिमा को भारत की सबसे प्राचीनतम विष्णु जी की प्रतिमा होने की बात कही। उसी के सामने रखी प्रतिमा को ,जिसे हम स्कंदमाता के नाम से जानते थे ।जिसका नामकरण स्वर्गीय श्री रघुनंदन प्रसाद पांडेय जी ने अपनी पुस्तक मल्हार दर्शन में किया था, को उन्होंने अंबा की प्रतिमा होने की बात कहीं । वे ,सैकड़ों की संख्या में रखी प्रतिमाओं का, बारीकी के साथ अध्ययन करते रहे। समय बीतता जा रहा था ।
वहीं पीपल पेड़ के पास से ही, उन्होंने मल्हार के मृदाकिला को देखने के बाद , वे सभी डिडिनेश्वरी मंदिर जाकर दर्शन किये। तत्पश्चात् सभी शासकीय प्राथमिक शाला, मल्हार पहुँचे। जहाँ उनके लिए सम्मान समारोह का आयोजन किया गया था ।उनकी गाड़ी के पहुँचने से पहले ही स्कूली बच्चेे दो कतारों में खड़े हो गए थे। गाड़ी से उतरतेे ही उनका तिलक लगाकर फिर आरती उतार कर स्वागत किया गया ।स्कूल के मध्य हाल में मंच बनाया गया था ।मंच पर पहुँचते तक बच्चे दोनों तरफ से फूल बरसाते रहे और करतल ध्वनि के साथ अतिथियों का स्वागत करते रहे। यह मंच स्कूली टेबल कुर्सियों से ही बनाया गया था मुख्य मंच पर श्री वाकणकर जी के साथ श्री नंदकिशोर शुक्ला जी विराजमान हुए एवं उनके दाहिने तरफ स्वर्गीय श्री श्यामलाल चतुर्वेदी जी बैठे थेे। अन्य कुर्सियों में श्री नारायण आहूजा जी, अधिवक्ता श्री साधुलाल गुप्ता जी ,श्री रघुनंदन साव जी, स्वर्गीय छेदीलाल पांडेेय जी, स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी, श्री शंकर प्रसाद चौबेे जी, स्व०श्री रघुनंदन प्रसाद पांडेय जी ,श्री राम प्रताप सिंह 'विमल' जी ,श्री ओम प्रकाश पांडेय जी एवं शिक्षकवृंद उपस्थित थे । श्री वाकणकर जी का सम्मान तिलक लगाकर मल्हार के मालगुजार बड़े राजा श्री रघुनंदन प्रसाद साव जी ने किया तथा साल और श्रीफल भेंट कर उन्हें सम्मानित किया । तत्पश्चात् अन्य आगंतुक अतिथियों का माल्यार्पण और पुष्पगुच्छ से स्वागत किया गया । मंच का संचालन अंचल केे प्रसिद्ध कवि और शिक्षक श्री राम प्रताप सिंह 'विमल' जी कर रहे थे । उन्होंने सम्मान पत्र का वाचन कर उन्हें वाकणकर जी को भेंट किया । जिस समय सम्मान पत्र का वाचन किया जा रहा था , उस समय मंच पर बैठेे- बैठे ही वाकणकर जी ने स्वर्गीय पंडित छेदीलाल पांडेय जी की छायाचित्र बनाकर उन्हेंं भेंट किया। यह उनकी कला के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है । उनकी इस प्रतिभा से मैं बहुत प्रभावित हुआ और मैंने स्वतः से ही चित्रकला सीखना प्रारंभ किया । आज जो भी कला के प्रति मुझमें रुची है ,उनके पीछे यही वह पल है ।वही मेरे प्रेरणा स्रोत भी बने और शैल चित्रों की खोज में उन्हीं का आशीर्वाद भी फलित हुआ है ।अतिथियों ने अलग -अलग भाषण दियेे। सबसे अंत में वाकणकर जी ने सभा को संबोधित किया । उन्होंने कहा कि- मल्हार में अध्ययन के लिए बहुत कुछ है। यहाँ आकर मुझे प्रसन्नता हो रही है । मैंने मल्हार के बारे में जितना सुना था, उनसे बढ़कर ही पाया। यहाँ को एक दिन में देखना संभव नहीं है। मैं नन्दमहल परघनिया बाबा और जैतपुर के चैत्य विहार को भी देखना चाहता था, पर समयाभाव के कारण नहीं देख पाया । इसका मुझे बहुत दुख हो रहा है। मेरे पास अभी समय कम है। शीघ्र ही समय निकालकर दो-चार दिनों के लिए मल्हार आऊँगा। तब मल्हार के मृदाकिला , जैतपुर के चैत्यविहार ,नन्द महल इत्यादि जगहों को देखूँगा ।आप लोगों के द्वारा की गई मेरे इस अभिनंदन से मैं बहुतअभिभूत हूँ। मैं खासकर पांडेय जी और ठाकुर गुलाब सिंह जी का विशेष आभारी हूँ। जिन्होंने आग्रह कर मुझे मल्हार आमंत्रित किया। अब मैं अपनी इच्छा से अपना पर्याप्त समय निकालकर दोबारा मल्हार अवश्य ही आऊँगा। अभी वापस लौटना भी है उज्जैन। समय कम है। आप लोगोंं ने जो इतना प्यार और सम्मान दिया ,उसका मैं आभारी हूँ। जल्द ही आप सबसे पुनः भेंट होगी ।अभी के लिए बस इतना ही ।जय मांँ भारती। आप सबका एक बार पुनःधन्यवाद।
मंच के एक तरफ श्री संजीव पांडेय जी तो दूसरी तरफ मैं भी खड़े रहकर मंच की व्यवस्था सम्हाल रहे थे ।
सम्मान समारोह के बाद वाकणकर जी अतिथियों के साथ स्वर्गीय ठाकुर गुलाब सिंह जी के निजी संग्रहालय को देखने उनके घर गए । जहाँ मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था थी। जहाँ उनके विशेष आग्रह पर चीला और सील में पिसी हुई टमाटर की चटनी तथा लहसुन मिर्ची की चटनी बनाया गया था। यह उनकी सादगी और आंचलिक संस्कृति के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है ,तो सादगी और सहजता को भी। भोजन के बाद पिताजी ने उन्हें 'अपीलक' की तथा 'प्रशन्नमात्र' जी के तांबे से निर्मित एकमात्र सिक्के को दिखाये । फिर मल्हार से प्राप्त मृदभांडों, मूर्तियाँ, शिल्प, मनके, सील, सीलिंग , तामपत्र आदि पूरावैभवों का अवलोकन कराया। फिर वहाँ से वे पांडेय जी के घर जाकर उनके इस संग्रह को देखते हुए जलपान किए। वहाँ उन्होंने खासकर ताम्रपत्रों की सेट और व्याघ्रराज की शिलालेख का अवलोकन किया ।
शाम होने वाली थी ,वापस भी लौटना था। अतः सभी अतिथि शीघ्रता से पांडेय जी के घर से बाहर निकल कर स्कूल के पास पहुँचे। अतिथियों के विदाई के अवसर पर बड़े पिताजी स्वर्गीय श्रीलालजी सिंह ठाकुर ने मल्हार की एक प्राचीन मूर्ति अतिथियों को भेंट किया । फिर वे सभी विदाई लेते हुए कार से बिलासपुर और फिर उज्जैन लौट गए। मल्हार में उनकी यादों को अपने मन और हृदय में संजोए, हम लोग उनके पुनः लौटने की प्रतीक्षा करते रहे ।
इसी दौरान शोधपत्र वाचन करने सिंगापुर गए हुए थे ।वहाँ वे सिंगापुर के होटल पैन पैसेफिक के बालकनी से, समुद्र किनारे को देखते हुए बैठे-बैठे रेखा चित्र बना रहे थे ।उसी दौरान हृदयाघात से उनकी मृत्यु 4अप्रैल 1988 को हो गया। जब उनकी देहांत की खबर , समाचार पत्रों के माध्यम से मल्हार के लोगों को पता चला तब जिस स्कूल में उन्हें सम्मानित किया गया था वहाँ 2 मिनट की मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई ।शाम को मल्हार विकास मंच के अध्यक्ष श्री संजीव पांडेय और मेरे द्वारा उनकी याद में दीपक जलाकर, वहाँ भी 2 मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई ।आज भी हम मल्हार वासी उनके आगमन और मल्हार प्रवास को याद करते हैं ।उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर समस्त मल्हार वासियों की तरफ से उन्हें अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
हरि सिंह क्षत्री, (मल्हार वाले)
मार्गदर्शक,
जिला पुरातत्व संग्रहालय,
कोरबा, छत्तीसगढ़ ,495 677, मो.-9827189845