आधुनिक युग में समाज को बाँटकर सत्ता हथियाने के लिए प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। बिहार ,उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में जातिगत जनगणना कराने की बातें की जा रही है। ऐसे ही कुछ बातें आर्य और अनार्य के संबंध में भी की जाती हैं। भारत में सनातन धर्म कर्म प्रधान न कि जन्मप्रधान ।आधुनिक युग में जातिव्यवस्था जन्मप्रधान हो गया है। जबकि प्राचीनकाल में यह कर्मप्रधान जातिव्यवस्था थी। लेकिन तथाकथित राजनीतिक दल और उनके नेता सामाजिक रिस्ते को बाँटो और राजकरो के सिद्धांत पर चल रहे हैं। वे खुद मलेच्छ हैं और उत्कृष्ट सनातन धर्म में भी मलेच्छता फैलाने का काम कर रहें हैं।
पहले मैं आर्य और अनार्य के भ्रम को तोड़ रहा हूँ। श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के द्वितीय खण्ड के युद्धकांड
के 104 वें अध्याय के दूसरे से पाँचवें श्लोक में रावण अपने सारथी को डाँटते हुए कहते हैं कि क्या तूने मुझे पराक्रमशून्य ,असमर्थ, पुरुषार्थशून्य, डरपोक, ओछा, निस्तेज, मायारहित, और अस्त्रों के ज्ञान से वंचित समझ रखा है कि मेरा अभिप्राय जाने बिना ही मेरी अवहेलना करके मेरे शत्रु के सामने से मेरा रथ हटा लिया?
त्वयाद्य हि ममानार्य चिरकालमुपार्जितम्।
यशो वीर्यं च तेजश्च प्रत्ययश्च विनाशितः।।5।।
वा.रा.यु.का. अ.-104 पृ.584
अर्थात् अनार्य! आज तूने मेरे चिरकाल से उपार्जित यश
, पराक्रम, तेज और विश्वास पर पानी फेर दिया।
यही नहीं उन्होंने आगे यह भी कहा कि मैं युद्ध का लोभी हूँ तो भी तूने रथ हटाकर शत्रु की दृष्टि में मुझे कायर सिद्ध कर दिया। दुर्मते ! मेरा यह अनुमान सत्य है कि शत्रु ने तुझे घूस देकर तोड़ दिया है।
इसके जवाब में उसी अध्याय के आगे के श्लोकों में सारथि के कर्तव्यों को बताते हुए कहा कि मैं डरा हुआ नहीं हूँ, मेरा विवेक भी नष्ट नहीं हुआ है, न मुझे शत्रुओं ने ही बहकाया है। मैं असावधान भी नहीं हूँ। आपके प्रति मेरा स्नेह भी कम नहीं हुआ है तथा आपने जो मेरा सत्कार किया है, उसे भी मैं भूला हुआ नहीं हूँ। मैं आपका सदा हित चाहता हूँ और आपके यश की रक्षा के लिए ही यत्नशील रहता हूंँ।
नास्मिन्नर्थे महाराज त्वं मां प्रियहिते रतम्।
कश्चिल्लघुरिवानार्यो दोषतो गन्तुमर्हसि ।।13।।
वा.रा.यु.का. अ.-104 पृ.584
अर्थात् महाराज ! मैं आपके प्रिय और हित में तत्पर रहनेवाला हूँ, अतः इस कार्य के लिए आप किसी ओछे और अनार्य पुरुष की भाँति मुझपर दोषारोपण न करें।
इससे स्पष्ट होता है कि आर्य अर्थात श्रेष्ठ आचरण करनेवाले लोग।जबकि अनार्य अर्थात गंदे आचरण करनेवाले, मिथ्यावादी , कायर , दुराचारी, पथभ्रष्ट आदि निम्नस्तरीय लोगों के लिए कहा गया है।
अब जो आर्य को बाहर से आनेवाले लोग माननेवाले इतिहासकार और तथाकथित विद्वान लोग, क्या यह कहना चाहते हैं कि भारत के मूलनिवासी दूराचारी, पथभ्रष्ट , कायर, और निकृष्ट लोग थे ? जिसे बाहर से आर्य आकर भारतीय लोगों को सभ्य बनाए। यह आपसब विचारें कि ऐसे लोगों को क्या कहना चाहिए जो हम भारतीयों को सदैव नीचा दिखाते रहें हैं। हर तरह से साजिश करते रहें हैं।
इसी तरह ब्राम्हणों के बारे में भी गलत-गलत बातें ही भ्रम फैलाकर उन्हें निकृष्ट दिखाने की कोशिश की जा रही है। भारतीय समाज को जातियों में बाँटा जा रहा है। एक तरह से सनातनियों को जाति-धर्म में बाँटकर भारत पर राज करने ,विधर्मी लोग षड्यंत्र कर रहे हैं।
आइये जरा इनके बारे में भी, सच जानने की कोशिश करते हैं। ब्राम्हण कौन और उन्हें क्या करना चाहिए।
ब्राह्मण को चाहिए कि वह सम्मान की इच्छा को भयंकर विष के समान समझकर उससे डरता रहे और अपमान को अमृत के समान स्वीकार करें, क्योंकि जिसकी अवमानना होती है उसकी हानि नहीं होती, वह सुखी ही रहता है।
और जो अवमानना करता है वह विनाश को प्राप्त होता है इसलिए तपस्या करता हुआ द्विज नित्य वेद या और उपनिषदों का अभ्यास करें। क्योंकि वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है
ब्राह्मण के तीन जन्म होते है। एक तो माता की गर्भ से , दूसरा यज्ञोपवीत के होने से समय और तीसरा यज्ञ तप की दीक्षा लेने से ।
यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है क्योंकि यज्ञोपवीत होने से पूर्व किसी भी वैदिक कर्म के करने का अधिकारी वह नहीं होता है।
श्राद्ध मे पढ़ जानेवाले वेदमंन्त्रो को छोड़कर (अनुपनीत द्विज) वेद मन्त्र का तबतक उच्चारण न करे क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हो जाय तबतक वह शुद्र के समान माना गया है।
यज्ञोपवीत सम्पन्न हो जाने पर द्विज को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिए और तभी से विधिपूर्वक वेदाध्ययन करना चाहिए ।
अपनी तपस्या वृद्धि के लिए गुरू के पास रहे और नियमों का पालन करते रहें ।पुष्प, फल,जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा,और अनेक प्रकार को काष्ठों या संग्रह रखें।
मद्य,मांस ,गन्ध,पुष्प-माला,व स्त्रियों का परित्याग करे।प्राणियों की हिंसा, शरीर मे उबटन-अंजन लगाना, जूता और छत्र धारण करना गीत सुनना ,नाच देखना, जुआ खेलना, झुठबोलना, निन्दा करना काम क्रोध और लोभादिके वशीभुत होना ब्राह्मण धर्म ये विरूद्ध है।
ब्राम्हण कौन?
यास्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।
वेद पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले,वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार पतंजलि के अनुसार-
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाये, वही पक्का ब्राह्मण है। पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, और वे पूज्य नहीं हो सकते हैं। ”
(पतंजलि भाष्य 51-115)
-महर्षि मनु के अनुसार-
विधाता शासिता वक्ता मा ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
अर्थात-शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता,वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं”।
(मनु; 11-35)
महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार “जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण
नहीं हैं, उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत)
महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार “जो निष्कारण (कुछ भी मिले ऐसी आसक्ति का त्याग करके)
वेदों के अध्ययन में व्यस्त रहे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय रहे वही ब्राह्मण हैं।
(सन्दर्भ ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०, पराशर स्मृति)
भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शाम, दाम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान),निस्पृही जैसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हैं। ”
“चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः” (भ.गी. ४-१३)
इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं कहा?
जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार “ब्राह्मण वही है जो “पुंसत्व” से युक्त हैं। जो “मुमुक्षु” हैं। जिसका मुख्य उद्देश्य वैदिक विचारों का संवर्धन हैं। जो सरल हैं, जो नीतिवान हैं , वेदों पर प्रेम रखता है , जो तेजस्वी और ज्ञानी हैं। जिसका मुख्य व्यवसाय वेदों का अध्ययन और अध्यापन कार्य है । वेदों,उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हैं। ”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सारसंग्रह,आत्मा-अनात्मा विवेक)
किन्तु जितना सत्य यह है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है । यह भी उतना ही सत्य है कि इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं ।
ऐतरेय ऋषि - ये दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की |ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेयब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
ऐलूष ऋषि - ये दासी पुत्र थे | जुआरी और हीनचरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये| ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९
सत्यकाम जाबाल- ये गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया |
(विष्णु पुराण ४.१.१४)
राजा नेदिष्ठ के पुत्र नाभाग वैश्य हुए| पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया |
(विष्णु पुराण ४.१.१३)
धृष्ट नाभाग के पुत्र थे, परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए|
(विष्णु पुराण ४.२.२)
भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण)
क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१)
वायु,विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए | इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।
राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे। परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण नहीं हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।
मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक है न कि जन्म से। विवाद का यह अलग विषय है। किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजों व ऋषियों ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है, उसमें काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी।
वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हैं। अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कारों की तरफ वापस बढ़ें ।
ब्राम्हणभेदा अथ ब्राम्हणभूदांस्त्वष्टौ विप्रावधारय।
मात्रश्चब्राम्हणश्चैव श्रोत्रियश्चतत:परम्।।
अनूचानस्तथाभ्रूणोऋषिकल्पः ऋषिर्मुनिः।
ऋषि कौन हैं?
ऊर्ध्वरेताभवत्यग्रे नियताशी न संशयी ।
शापानग्रह्यो शक्त:सत्यसंधोभवेदृषि:!!
मुनि कौन हैं?
निवृत्त:सर्व तत्वज्ञो काम क्रोधविवर्जित :l
ध्यानस्थो निष्क्रियो दानतस्तुल्यमृत्काञ्चने।
अतः आप सभी सनातनियों से आग्रह है कि तथाकथित राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बहकावे में न पड़कर , अपने परिवार को ज्ञानी बनाइये । उस संविधान (सम+विधान) के पचड़े में मत पड़िये। जिसमें कहा तो गया है कि समानता का अधिकार है परन्तु वे खुद ही हमें अगले-पिछड़े जाति-धर्म में बाँटते हैं। वास्तव में अगर हमारी संसद संविधान की रक्षा चाहती है तो सभी भारतीय लोगों के लिए एक ही शिक्षा, एक ही नौकरी की योग्यता रुपी समान आचार संहिता लागु कर दें।