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पुरातात्विक महत्त्व का यह स्थल छत्तीसगढ़ राज्य के कोरबा जिले में 22• 20'42"उत्तरी अक्षांश और 82• 41' 46"पूर्वी देशांतर पर समुद्र तल से 359.77 मीटर की ऊँचाई पर हसदेव नदी के बायें तट पर जिला मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रानीमहल है । इसी महल के पीछे एक प्राचीन शिव मंदिर है । इस पुरास्थल को कोरबा जमीदारी के अंतर्गत मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त है । रानी महल से पहले राजगढ़ी महल का अवशेष आज भी परिलक्षित है। जब राजगढ़ी महल खंडहर में परिवर्तित होने लगा था , तब 1913 के आसपास रानी महल का निर्माण प्रारंभ हुआ। जिस पर रानी धनराज कुँवर का आधिपत्य था। यहाँ एक ही स्थल पर दो शिव मंदिर एवं एक तुलसी चौरा बना हुआ है। समय के साथ ही साथ यह स्थल झाड़ियों में छिप गया था। मंदिर में बहुत ही कम लोगों का आना जाना था। इसका कारण यहाँ तक पहुँचना श्रम साध्य था। यहाँ पर बनी सीढ़ियाँ टूट चुकी थी ,और फिसलन भरी रहती थी। जिसका जीर्णोद्धार तात्कालिक पार्षद श्री मनीष शर्मा जी ने करवाया। (1*) इसके बाद अब यहाँ पहुँचना सुगम हो गया है। मुझे स्थानीय निवासी मनीष शर्मा जी , सत्या जायसवाल जी और केशव साहू जी द्वारा स्थल सर्वे में सहयोग प्रदान किया गया। मैं उन लोगों का आभारी हूँ।
यहाँ एक ही परिसर में दो लघु मंदिर हैं। इसमें एक में स्मार्तशिवलिंग विराजित हैं , तो दूसरे में प्राकृतिक पत्थर को काट एवं तराशकर शिवलिंग को योनिपीठ के साथ बनाया गया है। यहाँ नंदी नहीं है, पर यह मंदिर 2 भाग में है। मंदिर में प्रवेश करने पर सबसे पहले गणेश जी की प्रतिमा दिखाई देती है। जिससे यह आभास होता है कि यह गणेश मंदिर ही है, क्योंकि मंदिर के द्वार शाखा में भी गणेश जी बना हुआ है, लेकिन जैसे ही आप मंदिर में प्रवेश करते हैं ,वैसे ही बायें भाग में एक और मंदिर बना हुआ है, जो बाहर से दिखाई नहीं देता है । यहाँ शिवलिंग योनिपीठ के साथ जो नदी किनारे स्थित प्राकृतिक बलुवे पत्थर को काटकर , अच्छे से तराशकर बनाया गया है। यहाँ नंदी स्थापित नहीं है, जो बनावट के आधार ज्यादा प्राचीन प्रतीत होता है । यह अनुमान ही लगाया जा सकता है। यहाँ गणेश जी को लाल रंग से पुताई कर दिया गया है ,जिससे इसकी काल निर्धारण करना थोड़ा मुश्किल हो पा रहा है । संभवत दोनों ही समकालीन रहे हों। (2*)
यहाँ मंदिर के प्रवेश द्वार के दाहिने भाग में जो शिवलिंग है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। जिसे स्मार्त शिवलिंग कहा जाता है। (3*) यहाँ विराजित नंदी शिवलिंग की ओर मुख न करके ,सामने के मंदिर की ओर मुख किया हुआ है। जो दूसरी तरफ स्थापित गणेश जी की ओर देख रहा है, जैसे दोनों नंदी और गणेश जी एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हों, जैसे पूछ रहे हों कि इस जगह की महत्ता आखिर कब बढ़ेगी ? नंदी और गणेश जी के मुख पर एक मुस्कान स्पष्टरुप देखा जा सकता है। जैसे यहाँ के लोगों पर हँस रहा हो। जैसे कह रहे हैं कि दूर-दूर तो जलाभिषेक करने चले जाते हो , परंतु हमारे ही आशीर्वाद से जो यह कोरबा बस्ती बनी । राजगढ़ी महल बना। हमने ही रानी महल की सुरक्षा और कोरबा जमीदारी को सुरक्षित करने फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया ।(4*)अब जमीदारी चली गई तो हमारी पूजा तक नहीं हो रही है । पहले जमीदार परिवार के लोग कभी सूरंग से तो कभी नाव से नदी पार कर, माँ सर्वमंगला की पूजा करने जाते थे। यहाँ की पुजारी ने मंदिर पर कब्जा क्या किया, तब से हमने सूरंग का द्वार भी बंद कर दिए ताकि उन्हें कोई खतरा न हो। अवैध कब्जाधारियों का यहाँ भरमार हो गया है। बाहर के लोग यहाँ आने लगे और कोरवाडीह अब कोरबा जिला बन गया है। हमने आशीर्वाद दिये, पर स्वार्थी लोग यहाँ बेहिसाब धन कमाने तो लगे पर हम लोगों की सुधि लेना ही भूल गए । रानीमहल से हमें बाहर करने वालों की गति से भी सीख नहीं ले रहे हैं। राजगढ़ी महल खंडहर बन गया, रानीमहल में अब कोई दीपक जलाने वाला नहीं है। हमने सूरंग की द्वार बंद कर दी, तब भी लोग नहीं समझ रहे हैं। वे क्या तब समझेंगे जब मेरा तीसरा नेत्र खुलेगा और कोरबा पाताल में समा जाएगा। ऐसा मुझे वहाँ ध्यान लगाकर सुनने से आभास हुआ। पर ईश्वर जाने ईश्वर की मर्जी।
यहाँ मैं इस अनोखे स्मार्त शिवलिंग की चर्चा करना और इनकी इतिहास बताना जरूरी समझ रहा हूँ। यहाँ चट्टान काटकर जो शिवलिंग बनाया गया है जो स्मार्त शिवलिंग है। प्राचीन काल में ही भारतीय धार्मिक जीवन दो प्रकार की प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा है। प्रथम सांप्रदायिकता एवं द्वेष की प्रवृत्ति, द्वितीय सांप्रदायिक सह अस्तित्व व सद्भावना की प्रवृत्ति।प्रथम प्रवृत्ति से वैष्णव तथा शैव मतावलम्बियों से असहिष्णुता एवं कट्टरता विकसित हुई तो दूसरी ओर स्मार्तों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से सांप्रदायिक सौहार्द व सहनशीलता की भावना प्रकट हुई । इसी उदारवादी धार्मिक दृष्टिकोण से पंचदेवोपासना , पंचोंपासना, पंचायतन पूजा अथवा स्मार्तपूजा का जन्म हुआ । इन 5 पिण्डों की व्याख्या, कुछ विद्वानों ने पंचमुखी शिवलिंग एवं मार्तंड लिंग के रूप में की है। पंचमुखी शिवलिंग शिवजी के सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान रूपों का समेकित से प्रदर्शन है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इन सभी की मूर्तियों की प्रतीकात्मकता का विवेचन मिलता है। सद्योजात - पृथ्वी, वामदेव- जल( जिसे स्त्री रूप में माना जाता है), अघोर- अग्नि, तत्पुरुष- वायु तथा ईशान- आकाश ।इन्हीं पंचतत्वों को शिवजी के पाँच मुखों के माध्यम से अंकित किया जाता है। वस्तुतः यह पाँच मुख पाँच तत्वों की ओर लिंग संसार की सृष्टि का प्रतीक है । स्मार्त पूजा या उपासना विधि में सनातन धर्म के 5 अथवा 6 संप्रदायों, वैष्णव,शैव, शाक्त, सौर, गाणपत्य तथा कुमार के अधिष्ठाता देवताओं, शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य ,गणपति एवं कुमार की पूजा-अर्चना एक साथ हो जाती है।
इस प्रकार की उदारवादी विचारधारा का चलन सनातन धर्म में सदैव से रही है ,पर गुप्त शासनकाल में उनके शासकों के उदार दृष्टिकोण से यह विशेष रूप से पल्लवित हुई। इसके परिणाम स्वरूप पंचदेव उपासना का विकास हुआ। ज्ञात स्मार्तलिंगों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम प्रकार में केवल पाँच गोल आकार के पिंड ही प्राप्त होते हैं, जबकि द्वितीय प्रकार में इसके अतिरिक्त एक लघु आकार का छठा पिण्ड भी पीठ के मध्य भाग में दर्शाया जाता है। परंतु अभी तक छठा पिण्ड भी सुरक्षित हो ऐसा नहीं देखा गया है। यद्यपि स्मार्त पूजा में सामान्यतः केवल पाँच देवताओं की ही पूजा होती है किंतु आदि शंकराचार्य जो षड्मतस्थापनाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, के प्रभाव स्वरूप पंचदेवों के साथ कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है । इसका कारण भी है आदि शंकराचार्य दक्षिणात्त्य ब्राम्हण थे। दक्षिण भारत में कार्तिकेय अत्यधिक लोकप्रिय हैं, अतः स्मार्त पूजा में उन्हें सम्मिलित करना अनिवार्य था।
कोरबा जिले के तुमान और पाली में भी स्मार्तलिंग मिले हैं। जिनके चारों कोनों पर शिवलिंग जैसी संरचना निर्मित है। जिनमें वलयाकार सर्प लिपटी हैं। यहाँ से प्राप्त स्मार्तलिंग निश्चित रूप से 10-12 वीं शताब्दी के मध्य कलचुरी शासकों के द्वारा निर्मित कराया गया है, ये पाँचों पिण्ड आपस में जुड़े हुए हैं। (5*)
कोरबा से प्राप्त स्मार्तलिंग पाँच अलग-अलग पिण्ड रूप में हैं। जो शिव, विष्णु, गणेश ,सूर्य एवं शक्ति के प्रतीक हैं। इसे कोरबा राज परिवार ने ही बनवाया है कि यह पहले से ही गोंड़ राजाओं के द्वारा बनवाया गया है, यह कह पाना कठिन है। पर इस शिव मंदिर के सामने ही ,नदी बंदरगाह बने हुए हैं ।जहाँ जल व्यापार का एक बड़ा केंद्र यहाँ रहा होगा, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है। इस कारण यह भी कहा जा सकता है कि कोरबा के इतिहास लिखने के लिए यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिसका संरक्षण किया जाना भी अति आवश्यक हो जाता है। साथ ही शिव भक्तों एवं कावड़ियों के लिए भी जो ज्यादा चल पाने में असमर्थ हैं, साथ ही वे भक्त जो एक ही शिवलिंग का जलाभिषेक कर पंचतत्व, जल, अग्नि, वायु ,भू और आकाश के साथ ही साथ 5 देवताओं, शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य और माँ आदिशक्ति को प्रसन्न करना चाहते हैं , उनके लिए भी यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। वहीं पुरातत्व प्रेमियो के लिए भी, नदी बंदरगाह से व्यापार कैसे किया जाता रहा होगा? यह स्थल दर्शनीय एवं अध्ययन योग्य है।
संदर्भ ः-
1*- मनीष शर्मा(पार्षद पुरानी बस्ती)- से साक्षात्कार
2*- हरि सिंह क्षत्री मार्गदर्शक जिला पुरातत्त्व संग्रहालय कोरबा, सर्वे प्रतिवेदन
3*- जी.एल. रायकवार, पूर्व उपसंचालक संस्कृति एवं। पुरातत्त्व विभाग , रायपुर
4*- रविभूषण प्रताप सिंह, सदस्य राजपरिवार कोरबा। से साक्षात्कार
5*- डाॅक्टर पी.के.मिश्र, डी.के.खमारी, एस. एन.यादव- तुमान अनुरक्षण एक नवीन प्रकाश, प्रोसिडिंग 2010- संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग रायपुर -पृष्ठ- 343
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1/-हरि सिंह क्षत्री, मार्गदर्शक, जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, कोरबा