गुरुवार, 29 जुलाई 2021

विलक्षण स्मार्तलिंग -रानीमहल कोरबा

स्मार्तशिवलिंग,  रानीमहल कोरबा  
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    पुरातात्विक महत्त्व का यह स्थल छत्तीसगढ़ राज्य के कोरबा जिले में 22• 20'42"उत्तरी अक्षांश और 82• 41' 46"पूर्वी देशांतर पर समुद्र तल से 359.77 मीटर की ऊँचाई पर हसदेव नदी के बायें तट पर जिला मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रानीमहल है । इसी महल के पीछे एक प्राचीन शिव मंदिर है ।    इस पुरास्थल को कोरबा जमीदारी के अंतर्गत मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त है । रानी महल से पहले राजगढ़ी महल का  अवशेष आज भी परिलक्षित है। जब राजगढ़ी महल खंडहर में परिवर्तित होने लगा था , तब 1913 के आसपास रानी महल का निर्माण प्रारंभ हुआ। जिस पर रानी धनराज कुँवर का आधिपत्य था। यहाँ एक ही स्थल पर दो शिव मंदिर एवं एक तुलसी चौरा बना हुआ है। समय के साथ ही साथ यह स्थल झाड़ियों में छिप गया था। मंदिर में बहुत ही कम लोगों का आना जाना था। इसका कारण यहाँ तक पहुँचना श्रम साध्य था। यहाँ पर बनी सीढ़ियाँ टूट चुकी थी ,और फिसलन भरी रहती थी। जिसका जीर्णोद्धार तात्कालिक पार्षद श्री मनीष शर्मा जी ने करवाया। (1*)  इसके बाद अब यहाँ पहुँचना सुगम हो गया है। मुझे स्थानीय निवासी मनीष शर्मा जी , सत्या जायसवाल जी और केशव साहू जी द्वारा स्थल सर्वे में सहयोग प्रदान किया गया। मैं उन लोगों का आभारी हूँ। 
         यहाँ एक ही परिसर में दो लघु मंदिर हैं। इसमें एक में स्मार्तशिवलिंग विराजित हैं , तो दूसरे में प्राकृतिक पत्थर को काट एवं तराशकर शिवलिंग को योनिपीठ के साथ बनाया गया है। यहाँ नंदी नहीं है, पर यह मंदिर 2 भाग में है।  मंदिर में प्रवेश करने पर सबसे पहले गणेश जी की प्रतिमा दिखाई देती है। जिससे यह आभास होता है कि यह गणेश मंदिर ही है, क्योंकि मंदिर के द्वार शाखा में भी गणेश जी बना हुआ है, लेकिन जैसे ही आप मंदिर में प्रवेश करते हैं ,वैसे ही बायें  भाग में एक और मंदिर  बना  हुआ है,  जो बाहर से  दिखाई नहीं  देता है । यहाँ शिवलिंग योनिपीठ के साथ जो नदी किनारे स्थित प्राकृतिक बलुवे पत्थर को काटकर , अच्छे से तराशकर बनाया गया है।  यहाँ  नंदी स्थापित  नहीं है,  जो बनावट के आधार ज्यादा प्राचीन प्रतीत होता है । यह अनुमान ही लगाया जा सकता है। यहाँ गणेश जी को लाल रंग से पुताई कर दिया गया है ,जिससे इसकी काल निर्धारण करना थोड़ा मुश्किल हो पा रहा है । संभवत दोनों ही समकालीन रहे हों।  (2*)  
            यहाँ मंदिर के प्रवेश द्वार के दाहिने भाग में जो शिवलिंग है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। जिसे स्मार्त  शिवलिंग कहा जाता है। (3*) यहाँ विराजित नंदी शिवलिंग  की  ओर  मुख न करके ,सामने के मंदिर की ओर मुख किया हुआ है। जो दूसरी तरफ स्थापित गणेश जी की ओर देख रहा है, जैसे दोनों नंदी और गणेश जी एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हों, जैसे  पूछ रहे हों कि इस जगह की महत्ता आखिर कब बढ़ेगी ? नंदी और गणेश जी के मुख पर एक मुस्कान स्पष्टरुप देखा जा सकता है। जैसे यहाँ के लोगों पर हँस रहा हो। जैसे  कह रहे हैं कि  दूर-दूर तो जलाभिषेक करने चले जाते हो , परंतु हमारे ही आशीर्वाद से जो यह कोरबा बस्ती बनी । राजगढ़ी महल बना। हमने ही रानी महल की सुरक्षा और कोरबा जमीदारी को सुरक्षित करने फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया ।(4*)अब जमीदारी चली गई तो हमारी पूजा तक नहीं हो रही है । पहले जमीदार परिवार के लोग कभी सूरंग से तो कभी नाव से नदी पार कर,  माँ सर्वमंगला की  पूजा करने जाते थे। यहाँ की पुजारी ने मंदिर पर कब्जा  क्या किया,  तब से हमने सूरंग का द्वार भी बंद कर दिए  ताकि  उन्हें  कोई  खतरा  न हो।  अवैध कब्जाधारियों का यहाँ भरमार हो गया है।  बाहर के लोग यहाँ आने लगे और कोरवाडीह अब कोरबा जिला बन गया है। हमने आशीर्वाद दिये, पर स्वार्थी लोग यहाँ बेहिसाब धन कमाने  तो लगे पर हम लोगों की सुधि लेना ही भूल गए । रानीमहल से हमें बाहर करने वालों की गति से भी सीख नहीं ले रहे हैं। राजगढ़ी महल खंडहर बन गया, रानीमहल में अब कोई दीपक जलाने वाला नहीं है। हमने सूरंग की द्वार बंद कर दी, तब भी लोग नहीं समझ रहे हैं। वे क्या तब समझेंगे जब मेरा तीसरा नेत्र खुलेगा और कोरबा पाताल में समा जाएगा। ऐसा मुझे वहाँ ध्यान लगाकर सुनने से आभास हुआ। पर ईश्वर जाने ईश्वर की मर्जी।
        यहाँ मैं इस अनोखे स्मार्त शिवलिंग की चर्चा करना और इनकी इतिहास बताना जरूरी समझ रहा हूँ। यहाँ चट्टान काटकर जो शिवलिंग बनाया गया है जो स्मार्त शिवलिंग है।  प्राचीन काल में ही भारतीय धार्मिक जीवन दो प्रकार की प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा है। प्रथम सांप्रदायिकता एवं द्वेष की प्रवृत्ति, द्वितीय सांप्रदायिक सह अस्तित्व व सद्भावना की प्रवृत्ति।प्रथम प्रवृत्ति से वैष्णव तथा शैव मतावलम्बियों से असहिष्णुता एवं कट्टरता विकसित हुई तो दूसरी ओर स्मार्तों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से सांप्रदायिक सौहार्द व सहनशीलता की भावना प्रकट हुई । इसी उदारवादी धार्मिक दृष्टिकोण से पंचदेवोपासना , पंचोंपासना, पंचायतन पूजा अथवा स्मार्तपूजा का जन्म हुआ । इन 5 पिण्डों की व्याख्या, कुछ विद्वानों ने पंचमुखी शिवलिंग एवं मार्तंड लिंग के रूप में की है। पंचमुखी शिवलिंग शिवजी के सद्योजात,  वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान रूपों का समेकित से प्रदर्शन है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इन सभी की मूर्तियों की प्रतीकात्मकता का विवेचन मिलता है। सद्योजात - पृथ्वी, वामदेव- जल( जिसे स्त्री रूप में माना जाता है), अघोर- अग्नि, तत्पुरुष- वायु तथा  ईशान- आकाश ।इन्हीं पंचतत्वों को शिवजी के पाँच मुखों के माध्यम से अंकित किया जाता है।  वस्तुतः यह पाँच मुख पाँच तत्वों की ओर लिंग संसार की सृष्टि का प्रतीक है । स्मार्त पूजा या उपासना विधि में सनातन धर्म के 5 अथवा 6 संप्रदायों,  वैष्णव,शैव,  शाक्त, सौर,  गाणपत्य  तथा कुमार के अधिष्ठाता देवताओं,  शिव,  विष्णु, शक्ति, सूर्य ,गणपति एवं कुमार की पूजा-अर्चना एक साथ हो जाती है।
         इस प्रकार की उदारवादी विचारधारा का चलन सनातन धर्म में सदैव से रही है ,पर गुप्त शासनकाल में उनके शासकों के उदार दृष्टिकोण से यह विशेष रूप से पल्लवित हुई।  इसके परिणाम स्वरूप पंचदेव उपासना का विकास हुआ। ज्ञात स्मार्तलिंगों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम प्रकार में केवल पाँच गोल आकार के पिंड ही प्राप्त होते हैं, जबकि द्वितीय प्रकार में इसके अतिरिक्त एक लघु आकार का छठा पिण्ड भी पीठ के मध्य भाग में दर्शाया जाता है। परंतु अभी तक छठा पिण्ड भी सुरक्षित हो ऐसा नहीं देखा गया है।  यद्यपि स्मार्त पूजा में सामान्यतः केवल पाँच देवताओं की ही पूजा होती है किंतु आदि शंकराचार्य जो षड्मतस्थापनाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं,  के प्रभाव स्वरूप पंचदेवों के साथ कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है । इसका कारण भी है आदि शंकराचार्य दक्षिणात्त्य ब्राम्हण थे। दक्षिण भारत में कार्तिकेय अत्यधिक लोकप्रिय हैं, अतः स्मार्त पूजा में उन्हें सम्मिलित करना अनिवार्य था। 
            कोरबा जिले के तुमान और पाली में भी स्मार्तलिंग मिले  हैं। जिनके चारों कोनों  पर शिवलिंग  जैसी संरचना  निर्मित  है।  जिनमें  वलयाकार सर्प  लिपटी हैं। यहाँ  से प्राप्त स्मार्तलिंग निश्चित रूप से 10-12 वीं शताब्दी  के  मध्य कलचुरी  शासकों  के  द्वारा  निर्मित कराया गया है,  ये  पाँचों  पिण्ड आपस में  जुड़े  हुए हैं। (5*)
        कोरबा  से  प्राप्त स्मार्तलिंग पाँच अलग-अलग पिण्ड  रूप में हैं।   जो शिव, विष्णु, गणेश ,सूर्य एवं शक्ति  के प्रतीक हैं।  इसे कोरबा राज परिवार ने ही बनवाया है कि यह पहले से ही गोंड़  राजाओं के द्वारा बनवाया गया है, यह कह पाना कठिन है। पर इस शिव मंदिर के सामने ही ,नदी बंदरगाह बने हुए हैं ।जहाँ जल व्यापार का एक बड़ा केंद्र यहाँ रहा होगा, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है।  इस कारण यह भी कहा जा सकता है कि कोरबा के इतिहास लिखने के लिए  यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिसका संरक्षण किया जाना भी अति आवश्यक हो जाता है। साथ ही शिव भक्तों एवं कावड़ियों के लिए  भी जो ज्यादा चल पाने में असमर्थ हैं, साथ ही वे भक्त जो एक ही शिवलिंग का जलाभिषेक कर पंचतत्व, जल, अग्नि, वायु ,भू  और आकाश के साथ ही साथ 5 देवताओं, शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य और माँ आदिशक्ति को प्रसन्न करना चाहते हैं , उनके लिए  भी यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।  वहीं पुरातत्व प्रेमियो  के लिए भी,  नदी बंदरगाह से व्यापार  कैसे किया जाता रहा होगा?  यह स्थल दर्शनीय एवं अध्ययन  योग्य है।
संदर्भ ः-
1*- मनीष शर्मा(पार्षद पुरानी बस्ती)- से साक्षात्कार
2*- हरि सिंह क्षत्री मार्गदर्शक जिला पुरातत्त्व संग्रहालय         कोरबा, सर्वे प्रतिवेदन
3*- जी.एल. रायकवार, पूर्व उपसंचालक संस्कृति एवं।         पुरातत्त्व विभाग , रायपुर
4*- रविभूषण प्रताप सिंह, सदस्य राजपरिवार कोरबा।           से साक्षात्कार
5*- डाॅक्टर पी.के.मिश्र, डी.के.खमारी, एस. एन.यादव- तुमान अनुरक्षण एक नवीन प्रकाश, प्रोसिडिंग 2010- संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग रायपुर -पृष्ठ- 343
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   1/-हरि सिंह क्षत्री, मार्गदर्शक, जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, कोरबा
 

सोमवार, 12 जुलाई 2021

एक अनोखा मुगल कालीन राम चरित मानस


मुगलकालीन तुलसीदास कृत रामचरित मानस, लिथोग्राफ पर मुद्रित
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       जिला पुरातत्त्व संग्रहालय कोरबा में लिथोग्राफ पर मुद्रित एक दुर्लभ रामचरित मानस पर्यटकों के देखने के लिए रखा गया है । जो जिला पुरातत्त्व संग्रहालय के मार्गदर्शक श्री हरि सिंह क्षत्री को कोरबा जिले के करतला विकासखंड अंतर्गत उमरेली निवासी सेवानिर्वृत्त प्रधानपाठक श्री तेजी राम सोनी ने उन्हें नदी में विसर्जन करने के लिए दिया था, जिसकी महत्ता को जानकर उसे कोरबा ले आया और उसे साफकर  सुरक्षित रुप से संग्रहालय में रख दिया है।  यह पुस्तक बहुत पुरानी पर महत्वपूर्ण है। यह अत्यंत जीर्णशीर्ण  होने के कारण संरक्षित किए जाने योग्य है।
        इस राम चरित मानस के अनुशीलन से पता चलता है कि इनका अलग अलग काण्ड अलग अलग तिथि को लिखे गए हैं और मुद्रित भी हुए हैं। इसमें एक जगह लिखा है कि- 'इति श्रीराम चरित मानसे सकल कलि कलुष विध्वंसने विमल विज्ञान वैराग्य सम्पादनो  नाम तुलसीकृत वालकाण्ड प्रथमः सोपानः समाप्तः संवत १५४६  मिति वैशाखवदी १५ दिन सोमवार । आगे श्लोक ७, चौपाई १५७५, छन्द ३५ , सोरठा ३६ ,  और दोहा ३६१  की संख्या के साथ लिखंत  कालीचरन ।। मतवै फ़ैज़रसां शहर लखनऊ अक़बर सराय आग़ामीर मेल एहत्माम ज़ामिन अली खां  के छापा गया।। २६ अपरैल सन् १८८५ ईस्वी।।वारसेयुम।।  यहाँ कुछ मानवीय गलतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।         इसी तरह एक पृष्ठ पर 'इति  श्रीराम चरित मानसे सकल कलि कलुष विध्वंसने विमल वैराग्य संपादने तुलसीकृत आरण्यकांड तृतीय सोपानः समा०'  लिखा गया है।
       इसी तरह से एक चित्र के नीचे ' संवत १५४४ मिति कुँवारवदी १५  १७  सितम्बर सन्  १८८७ ई० ' लिखा है।
        इसी तरह किष्किंधाकाण्ड - शहर लखनऊ मु० अकबर सराय आगामीरमतवय फैज़रसंमिंएहत्माम ज़ामिन अली खां से छपावा रचहारुम २० नवम्बर १८८५  ईसवी ' को लिखा गया पाया गया है।      इसी तरह इस राम चरित मानस में एक जगह -' कृपा श्री भगवान में,  यह पोथी छपी शहर लखनऊ मुहल्ले , लंकाकांड अकबर सराय आगामी रमेमतवपे , जरसो , जामिल अली खाँ से छ०' लिखा पाया गया ।
         इसी तरह एक पृष्ठ पर ' इति श्री राम चरित मानस  तुलसीकृत सुन्दरकाण्ड पंचम सोपान समाप्त संवत १५४५  आषाढ़वदी ८' लिखा पाया गया है।
         इस पोथी में अनेक मानवीय भूलें मुद्रित हैं। कहीं लकीर में जगह कम पड़ने पर शेष शब्दों को आड़ी के बजाय खड़ी कर मुद्रित किया गया है। कहीं मात्राओं में भूल की गई है तो कहीं शब्दों में। 
          इस पोथी में पचास से भी अधिक हस्तचित्र  चित्रांकन किया गया है। इन चित्रों में भी अनेक भूलें हैं।  जैसे - रावण के सिर को देखने से पता चलता है कि कहीं नौ सिर है तो कहीं ग्यारह। एक जगह नौ सिर तो दसवें सिर के रूप में गधे को दिखाया गया है ।      इस तरह से यह लिथोग्राफ पर मुद्रित राम  चरित मानस अपनी अनेकों विशेषताओं के साथ एक अनोखी पोथी है , और अद्वितीय भी।
 सूत्र -
1/-  पोथी के मूल स्वामित्व श्री तेजी राम सोनी जी के व्यक्तिगत विचार, 
 2/- जिला पुरातत्त्व संग्रहालय के मार्गदर्शक श्री हरि सिंह क्षत्री को कथनानुसार विचार

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

मल्हार में राम

मल्हार में राम
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      दक्षिण कोसल का सबसे प्राचीनतम नगर मल्हार अपने पुरावैभव के लिए जगतप्रसिद्ध है। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के द्वारा यहाँ का इतिहास, ईसा पूर्व एक हजार साल से अब तक निरंतर बताया गया है । मल्हार के स्थानीय निवासी स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी के निजी संग्रह से तथा सागर विश्वविद्यालय तथा उत्खनन विभाग नागपुर द्वारा मल्हार में किए गए उत्खननों से भी इस बात की पुष्टि होती है। 
        पौराणिक ग्रंथों  के अलावा भी इस क्षेत्र के बारे में वाल्मिकी रामायण तथा महाभारत में भी मल्हार के विभिन्न जगहों के बारे में उल्लेख है। जिसके बारे में अनेक दंतकथाएँ  हैं।  ऐसे ही एक दंतकथा है यहाँ के परमेसरा तालाब के बारे में , जिसका प्राचीन नाम पंचाप्सरा  तीर्थ था । जो अपभ्रंष होकर परमेसरा हो गया है।  त्रेतायुग में यह क्षेत्र पंचाप्सर तीर्थ कहलाता था। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के एकादश सर्ग में इस संबंध में विस्तार से वर्णन किया गया है। उस समय मल्हार के वर्तमान परमेसरा तालाब का विस्तार एक योजन तक था। जो सिकुड़ते-सिकुड़ते  अब मात्र 39 एकड़ का ही रह गया है। इस तालाब की दंतकथाओं  में से एक यह भी है कि इस तालाब के मध्य में सोने का एक महल है। जिनमें एक ऋषिराजा  अपने पाँच रानियों के साथ निवास करते हैं। प्राचीन काल में यहाँ निवास करने वाली रानियाँ  कमल के पत्ते और फूलों में बैठकर तालाब के किनारे स्थित शिवमंदिर में आकर शिव जी की पूजा करती, फिर वैसे ही पुनः तालाब के मध्य बने सोने के महल में लौट जातीं,  वहाँ जाकर गायन वादन करतीं थीं । जिनकी आवाज अब तक अनेकों ग्रामीण सुन चुके हैं। 
       अचला सप्तमी के दिन इस तालाब का शीतल जल गंगा सहित अनेकों तीर्थों का यहाँ समागम होता है। उस दिन यदि इस तालाब में स्नानकर यहाँ से जल लेकर पातालेश्वर महादेव का अभिषेक करने से भू-मण्डल में स्थित सभी तीर्थों में स्थान करने का फल मिलता है।
        
ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे ।
ददृशुः सहिता रम्यं तटाकं  योजनायुतम् ।।
                                        - वा.रा. अर.कां.11/5
अर्थात् दूर तक यात्रा तय करने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन तीनों ने एक साथ देखा- सामने एक बड़ा ही सुंदर तलाब है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई एक एक योजन की जान पड़ती है।
पद्मपुष्करसम्बाधं गजयूथैरलंकृतम्  ।
सारसैर्हंसकादम्बैः संकुलंजलजातिभिः ।।
                                         -वा.रा.अर.कां.11/6 अर्थात् वह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था । उसमें क्रीड़ा करते हुए झुंड के झुंड हाथी उसकी शोभा बढ़ाते थे। तथा सारस ,राजहंस और कलहंस आदि पक्षियों एवं जल में उत्पन्न होने वाले मत्स्य आदि जंतुओं से व्याप्त दिखाई देता था।
प्रसन्नसलिले रम्ये तस्मिन् सरसि शुश्रुवे ।
गीतवादित्रनिर्घोषो न तु कश्चन दृश्यते।।7।।
ततः कौतुहलाद् रामो लक्ष्मणश्च महारथी।
मुनिं धर्मभृतं नाम प्रष्टुं समुपचक्रमे ।।8।।
इदमत्यद्भुतं श्रुत्वा सर्वेषां नो महामुने  ।
कौतूहलं महज्जातं किमिदं साधु कथ्यताम् ।।9।।
                    - वा.रा. अर.कां.सर्ग 11-7/8/9
अर्थात् स्वच्छ जल से भरी हुई उस रमणीय सरोवर में गाने बजाने का शब्द सुनाई देता था, किंतु कोई दिखाई नहीं दे रहा था। तब श्री राम और महारथी लक्ष्मण ने कौतूहलवस अपने साथ आए हुए धर्मभृत नामक मुनि से पूछना आरंभ किया।  महामुने ! यह अत्यंत अद्भुत संगीत की ध्वनि सुनकर हम सब लोगों को बड़ा कौतूहल हो रहा है  यह क्या है, इसे अच्छी तरह बताइए।  तब धर्मभृत मुनि ने कहा कि-
इदं पञ्चाप्सरो नाम तटाकं सार्वकालिकम्।
निर्मितं तपसा राम मुनिना माण्डकर्णिना ।।11।।
स ही तेपे तपस्तीव्रं माण्डकर्णिर्महामुनिः ।
दशवर्षसहस्त्राणि वायुभक्षो जलाशये।।12।।
      अर्थात्  श्रीराम ! यह पंचाप्सर नामक सरोवर है, जो सर्वदा अगाध जल से भरा रहता है। माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इसका निर्माण किया था। महामुनि माण्डकर्णि ने एक जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्त्र वर्षों तक तीव्र तपस्या की थी।
                     -   वा.रा.अर.कां. सर्ग-11-11/12
ततः कर्तुं तपोविघ्नं सर्वदेवैर्नियोजिताः । 
प्रधानाप्सरसः पञ्च विद्युच्चलितवर्चसः ।।15।।
अप्सरोभिस्ततस्ताभिर्मुनिर्दृष्टपरावरः ।
नीतो मदनवश्यत्वं देवानां कार्यसिद्धये।।16।।
ताश्चैवाप्सरसः पञ्च मुनेः पत्नीत्वमागताः।
तटाके निर्मितं तासां तस्मिन्नन्तर्हितं गृहम् ।।17।।
तत्रैवाप्सरसः पञ्च निवसन्त्यो यथासुखम् ।
रमयन्ति तपोयोगान्मुनिं यौवनमास्थितम्  ।।18।।
तासां संक्रीडमानानामेष वादित्रनिःस्वनः ।
श्रूयते भूषणोन्मिश्रो गीतशब्दो मनोहरः ।।19।।
         अर्थात् तब उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिनकी अंगकांति विद्युत के समान चंचल थी। तदन्तर जिन्होंने लौकिक एवं पारलौकिक धर्माधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन मुनि को उन पाँच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए काम के अधीन कर दिया। मुनि की पत्नी बनी हुई वे ही पाँच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं।  उनके रहने के लिए इस तालाब के भीतर घर बना हुआ है, जो जल के अंदर छिपा हुआ है । उसी घर में सुखपूर्वक रहती हुई पाँचों अप्सराएँ तपस्या के प्रभाव से युवा अवस्था को प्राप्त हुए मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं । क्रीड़ा-विहार में लगी हुई उन अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनाई देती है,  जो भूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है। साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है। 
       -वा.रा.अरं.कां.सर्ग-11 -15/16/17/18/19
        इस तरह त्रेतायुग में मल्हार का परमेसरा तालाब का क्षेत्र पञ्चाप्सर तीर्थ के नाम से जाना जाता है। जिस दिन राम इस तीर्थ में आए थे, वह अचला सप्तमी के ही दिन था।उसी की याद में मल्हार के इस प्रसिद्ध तालाब में एक दिन सम्पूर्ण तीर्थों का निवास स्थान माना जाता है। उसी दिन से शिव और राम को मानने वाले अचला सप्तमी के दिन इस पंचाप्सर तीर्थ  स्थान में स्नान कर यहाँ से जल लेकर पातालेश्वर महादेव में जलाभिषेक कर सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त करते हैं। 
       

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

कलचुरी कालीन तुम्मान मंदिर में राम

कलचुरी कालीन तुम्मान मंदिर में  दशावतार
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  शिव मंदिर तुम्मान में दशावतार
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      जिला मुख्यालय कोरबा से कटघोरा जटगा-पसान मार्ग पर 52 किलोमीटर दूर 22•34'30" उत्तरी अक्षांश और 82•25'19"  पूर्वी देशांतर पर समुद्र तल से1422.87 फीट की ऊँचाई पर तुम्मान(तुमान) स्थित वनकेश्वर  महादेव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण कलचुरी राजा रत्नदेव प्रथम  के द्वारा अपने शासनकाल 1045-1065 ईस्वी के मध्य करवाया गया था।  कलचुरी राजवंश वैसे तो शैव मतावलम्बी थे। परन्तु वनकेश्वर महादेव मंदिर के द्वारशाख पर बने हुए दशावतार को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वे अब वैष्णव धर्म को भी अंगिकार करने लगे थे।इसीलिए यहाँ के शिवमंदिर के द्वारशाखा में भगवान विष्णु के दशावतारों को भी स्थान देते हुए सुन्दर शिल्पांकन करवाए थे।  
      पश्चिमाभिमुख सप्तरथ शैली में निर्मित यह मंदिर स्थानीय बलुवे पत्थरों से निर्मित है।  मंदिर के द्वारशाख के नवग्रह समूह में क्रमशः ब्रह्मा ,शिव और विष्णु जी बने हुए हैं। जिनके मध्य में शिव जी के होने से यह मंदिर शिव जी को समर्पित है। इसके दाएँ भाग में क्रमशः मत्स्य, कुर्म, वराह, नरसिंह और वामन भगवान का शिल्पांकन है जबकि बाएँ पार्श्व में क्रमशः राम, परशुराम, कृष्ण , बुद्ध और कल्कि भगवान का शिल्पांकन है।  यहाँ शिल्पकार ने परशुराम से पहले भगवान राम को शिल्पांकित किया गया है।  यह ध्यान देने योग्य है। जबकि परशुराम जी का  अवतार भगवान राम से पहले हुआ था तो नियमानुसार पहले परशुराम जी का शिल्पांकन होना चाहिए था।  इस प्रकार यहाँ पर रामायण कालीन दो पात्रों का सुंदर शिल्पांकन है।
        तुम्मान ,हैहयवंशीय कलचुरी राजवंश की दक्षिण कोसल में प्रथम राजधानी रही है। कलचुरी शासक कोकल्लदेव के सबसे छोटे पुत्र कलिंगराज ने  इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त किया था और इसे राजधानी भी बनाया था।  पर वे यहाँ रुके नहीं , वे वापस त्रिपुरी  लौट गए थे। उसके बाद उनके पुत्र कमलराज ने इस क्षेत्र पर शासन किया। उसके बाद बाद उसके पुत्र रत्नदेव प्रथम  के शासनकाल में यह क्षेत्र 1050 ईस्वी तक राजधानी बना रहा । फिर उन्होंने अपने को त्रिपुरी के सामंत के रूप में पृथक करते हुए ,अपने नाम से रतनपुर को अपना राजधानी बनाये। 
         1165-1170 ईस्वी तक जाजल्लदेव द्वितीय के समय  यह पुनः कलचुरी राजवंश की राजधानी बनी।  उस समय यहाँ बहुत से निर्माण कार्य भी हुआ।  जटाशंकरी नदी के बांई तट पर सतखण्डा  महल भी बनाए गये थे।  यहाँ के शिवमंदिर भारत सरकार के द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। यहाँ और भी बहुत से मंदिरों के अवशेष बिखरें पड़े हैं।