गुरुवार, 14 अक्टूबर 2021

असुरक्षित कोसगाई गढ़(कोसंगा दुर्ग) , को इंतजार है अपने तारनहार का

असुरक्षित कोसगाई गढ़(कोसंगा दुर्ग) को इंतजार है अपने तारनहार का
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      कोसगाई गढ़ को किसने और कब बनवाया यह कोई भी इतिहासकार अभी निश्चित रूप से नहीं कर सकते हैं। परंतु कोसगाई गढ़ बहुत बातों के लिए इतिहास की टूटती हुई ,खासकर कलचुरी राजवंश की लुप्त वंशावली को जोड़ने वाली एक अहम कड़ी के रूप में जाना जा सकता है।   ऐसे तों हम जानते ही हैं कि कलचुरी राजवंश भारतवर्ष में सबसे ज्यादा राज करने वाला राजवंश रहा है। फिर भी इसके अंतिम शाखाएं क्यों लुप्त हुई, खोज का विषय है। 
       प्राप्त शिलालेख से जाना जा सकता है कि दक्षिण  कोसल में कलचुरी राजवंश कलिंग राज ने जो कोकल्ल प्रथम के कनिष्ठ पुत्र का वंशज था, अपने निर्बाध शक्ति तथा खजाने वृद्धि करने की दृष्टि से अपने पूर्वजों का देश का डाहल को छोड़ दिया और ईसवी सन् 1000 में दक्षिण कोसल को जीता । उसने अपनी राजधानी के लिए तुम्मान को चुना ,क्योंकि उसके पूर्वजों ने उसे अपने शासनकाल का मुख्यालय बनाया था। वहाँ रहकर तथा शत्रुओं का सफाया कर उसने अपने वैभव को बढ़ाया।  कलिंग राज के शासनकाल की उल्लेखनीय घटनाएं धार के परमार शासक सिंधु का आक्रमण था । कलिंग राज के बाद कमलराज फिर रत्नदेव प्रथम,फिर पृथ्वीदेव प्रथम , फिर जाजल्लदेव प्रथम ,फिर रत्नदेव द्वितीय, फिर पृथ्वीदेव द्वितीय ,फिर जाजल्लदेव द्वितीय, फिर जगद्देव ,फिर रत्नदेव तृतीय  फिर प्रतापमल्ल देव  राजा बने। यहाँ तक का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है। परंतु तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में हमें रतनपुर शाखा के कलचुरी शासकों का शिलालेखिय प्रमाण बिल्कुल नहीं मिलता है। 
         15वीं शताब्दी के समाप्ति तक बाहरसाय के शासनकाल तक हमें प्रतापमल्ल के उत्तराधिकारियों  के अभिलेख उपलब्ध नहीं होते हैं।  तथापि हमें अन्य राजवंशों के अभिलेखों का शासन करने वाले राजाओं का यदा-कदा उल्लेख मिलता है ।  राजा बाहरसाय के प्रस्तर अभिलेखों में रतनपुर के कलचुरी नरेश के और नाम मिलते हैं।  इस राजा के कोसंगा शिलालेख (कोसगाई) में कुछ स्थानों पर उसकी विजय अंकित हैं।  इसमें राजा बाहरसाय तक रतनपुर के कलचुरी  नरेशों के वंश क्रम का भी वर्णन है।  जिनके 5 पूर्वज सिम्बम, घनवीर, मदनब्राम्हण , रामचंद्र और रत्नसेन का उल्लेख है। बाहर ने ईसवी सन् 1480 से 1515 तक शासन किया तथापि उसमें बाहर के पूर्वजों के शासनकाल की किसी राजनीतिक घटना का उल्लेख नहीं किया गया है । यदि शासनकाल का औसत 25 वर्ष मानले तो सिंघना जो पार पीढ़ी पूर्व हुआ था ईसवी सन् 1335 में गद्दी पर बैठा  रहा होगा।  संभवतः यह राजा वहीं होगा जिसका उल्लेख रायपुर और खल्लारी  शिलालेखों में सिघन या सिंह के रूप में किया जाता है और यह भी प्रतीत होता है कि उसने उस उसी अवधि में शासन किया था।  जबकि उसका पौत्र ब्रह्मदेव ने ईसवी सन् 1402 में रायपुर और खल्लारी में शासन कर रहा था । रायपुर  शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि लक्ष्मीदेव ने रायपुर में शासन किया था , जिसके पुत्र का नाम रामचंद्र तथा । यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं  मिलता है। 
            जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि बाहर के पूर्वजों के शासन के संबंध में हमें कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है। तथापि बाहर के शासनकाल में पठानों से छुटपुट झड़पें  हुई थी।  अतः वह अपनी राजधानी रतनपुर से कोसंग आज का कोसगाई गढ़ ले गया और संभवत उसने ऐसा पठानों के हमलों के कारण किया था।  कोसंगा के इस किले से वह पठानों की बाहरी चौकियों पर आक्रमण किया करता था।  कोसगाई शिलालेख में हमें इस क्षेत्र में पठानों के हमलों तथा  राजा बाहर तथा उसके मंत्री माधव के जवाबी हमलों का उल्लेख मिलता है।  तथापि मुस्लिम इतिवृत्त में इस क्षेत्र में अफगानों के किए हमले का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि यह क्षेत्र भूअवष्टित होने कारण उनके लूटपाट की गतिविधियों से काफी सुरक्षित था।  अब्दुल्ला के तारिख दाऊदी में शहडोल जिले में बंधु के किले पर सिकंदर लोदी के आक्रमण का उल्लेख है जिसे वह जीत नहीं सका था। 
       बाहरसाय के उत्तराधिकारियों का कोई शिलालेखीय प्रमाण नहीं है ।कल्याणसाय जो बाहर का पुत्र तथा  उत्तराधिकारी था के संबंध में यह कहा जाता है कि वह मुगल सम्राट अकबर को नजराना देने के लिए आगरा चले गये थे। आगरा प्रस्थान करने के पहले उसने अपने साम्राज्य का प्रशासन अपने पुत्र लक्ष्मणसाय को सौंप दिया था । वे आगरा में लगभग 8 वर्ष रहे और वहाँ से वह सम्मानोपाधि तथा राजा के पूरे अधिकार लेकर रतनपुर लौटा और  उसे उच्च पदवी  देकर रतनपुर प्रदेश का कब्जा दे दिया गया। 

एक विलक्षण खोजकर्ता हरि सिंह क्षत्री

बिलासपुर जिले के श्री हरि सिंह क्षत्री पिता स्वर्गीय गुलाब सिंह नगर पंचायत मल्हार के मूल निवासी हैं। आपके पिताजी अविभाजित मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग के आजीवन सदस्य थे ।आप अपने पिताजी से पुरातत्व की बारीकियाँ बचपन से ही सीखने लगे थे। मल्हार  के  प्राचीन स्थलों और मृदा किले में जाकर प्राचीन सिक्कों, मनको और अन्य पुरातात्त्विक महत्व के धरोहरों को खोज-खोज कर अपने पिताजी को देते। जिसकी जानकारी शासन को विभिन्न माध्यमों से दी जाती थी। उनके इन्हीं उपलब्धियों को जानकर जब संस्कार भारती के प्रथम राष्ट्रीय महामंत्री और पद्मश्री स्वर्गीय श्री हरिभाऊ वाकणकर जी भी सन् 1987 में मल्हार आए थे।धजहाँ आपने उनसे शैलचित्रों के बारे में जाना और उन्हीं की प्रेरणा से जब आप कोरबा के जंगलों में शैलाश्रयों में शैल चित्रों की खोज की। जिनमें सुवरलोट ग्राम की 'सीता हरण विषय पर आधारित प्रसिद्ध शैल चित्र' भी है।
         कोरबा जिले में आपने पुरातात्विक धरोहरों को बचाने के लिए विशेष पहल किया। आप स्वतः के खर्च पर लगातार 3 सालों तक जंगल में बिखरे धरोहरों को लाकर, जिला कलेक्टर कार्यालय में जमा करते रहे। जिससे प्रभावित होकर जिलाधीश महोदय ने पहले आपको पुरातत्व संघ में विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया और जब आपने इतनी सामग्री एकत्र कर लिए कि एक संग्रहालय बन जाए, तब जिलाधीश के द्वारा पहले एक अस्थाई संग्रहालय बनाकर, उसकी देखरेख हेतु और आपकी खोज को बढ़ावा देने के लिए आपको पूर्णतः अशासकीय सेवक के  आधार पर मानदेय राशि प्रदान करते हुए मार्गदर्शक पद पर कार्य करने की जिम्मेदारी दी। तब से आप लगातार नए-नए खोज और संग्रह करते जा रहे हैं। आप ही के प्रयास से संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ और नगर निगम के 50-50% योगदान से आलो वाला एक स्थाई संग्रहालय का निर्माण भी हुआ। जिसमें सिक्के, मूर्तियाँ, जीवाश्म, मृद्भांड, तलवारें, बंदूकें एवं जमींदारी  कालीन वस्त्र ,आभूषण, दस्तावेज आदि के अलावा जनजातीय संस्कृति से जुड़े हुए सामानों का संग्रह कर, आपने कोरबा जिले को एक बेहतरीन सौगात दिया। जिसमें आपने यहाँ मूर्तियाँ एवं अन्य पुरातात्विक संपदा को खोज-खोज कर उन्हें इस क्षेत्र की पुरातत्विक संपदा, मूर्तियाँ, संस्कृति एवं कलाएँ संग्रहित कर प्रदर्शन  हेतु रखने लगे। जिससे जनमानस को इस क्षेत्र की संस्कृति एवं सभ्यता को जानने का शुभ अवसर मिल रहा है। वहीं विद्यार्थियों के लिए अध्ययन हेतु पर्याप्त सामाग्री प्रदर्शन हेतु आपने उपलब्ध कराया है। 
        आपने भाटीकूड़ा में शिव मंदिर के भग्नावशेष एवं नदी देवियों की दुर्लभ प्रतिमाएँ, मौहारगढ़ में किले की भग्नावशेष, मूर्तियां और शिलालेख, सीतामढ़ी कोरबा में सातवीं-आठवीं शताब्दी के शिलालेख और भगवान राम-लक्ष्मण तथा विश्वामित्र जी की यज्ञ की रक्षा करते हुए दुर्लभ प्रतिमाएँ और सुरंग, बीरतराई में शिवमंदिर के अवशेष और मूर्तियाँ, आमाटिकरा में हनुमान जी और महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा, कोसगाई में अनेक गुफाएँ, मूर्तियाँ, कुटरीगढ़ में शिव मंदिर और मूर्तियाँ, गढ़कटरा में प्राचीन किला गजाडाँग और हनुमान जी की प्रतिमा, शिव मंदिर के अवशेष तथा प्राचीन नगर के अवशेष, गढ़-उपरोड़ा में शिव मंदिर के अवशेष, नेवसापाठ के कुएँ के अंदर में शिलालेख, लाफा में प्राचीन मूर्तियाँ, अमरेली ,रजकम्मा, घुमानीडांड़ ,धनगाँव कर्रापाली में मूर्तियाँ और स्थापत्य खंड,नेवारडीह में मृद्भांड और नगाड़े, पहाड़गाँव में प्राचीन नगर के अवशेषों को खोज कर उन्हें यथासंभव जिला संग्रहालय में संग्रहित किया, या उनके मूल स्थान में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कराया।           बाल्यकाल में पद्मश्री श्री हरिभाऊ वाकड़कर जी को मिले मल्हार में सम्मान और आपके घर जाकर, आपके सिर पर हाथ रख कर दिया गया आशीर्वाद और ज्ञान का प्रभाव ही था कि आपने कोरबा जिले के करतला विकासखंड में पहली बार जब 8 नवंबर 2012 को लगभग 2200 फीट की ऊँचाई में दूल्हा-दुल्ही पहाड़ी पर 12 मीटर लंबे शैलाश्रय में हाथ ऊपर उठाए हुए दो मानव आकृति ,एक महिला आकृति हिरण या भालू आदि के शैलचित्रों की खोज किया ,इस कार्य के लिए जिला प्रशासन के द्वारा आप को प्रोत्साहन मिला ।इससे प्रसन्न होकर आपने यहाँ से 3 किलोमीटर दूर ही भारत देश का एकमात्र शैलचित्र जिसमें सीताहरण की कथानक है ,जिसे भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग ने प्रारंभिक इतिहास काल का माना है, तो इसे मीनाक्षी पाठक एवं जान क्लाट साहब ने इसे और भी प्राचीन माना है। इसके बाद इसे ई टीवी में आधे घंटे की स्पेशल स्टोरी बना कर दिखाया गया। बाद में न्यूज़ 18 इंडिया के प्रसिद्ध शो 'आधी हकीकत आधा फसाना ' में भी स्पेशल स्टोरी के रूप में दिखाया। 
       इसके बाद आपने अजगरबहार के हरदीमाड़ा गाँव के मछलीमाड़ा में आदिमानव का शैलाश्रय और पाषाण कालीन लघु उपकरणों, धूमिल होते हुए शैलचित्र ,अजगर बहार के रानी गुफा में 30 से अधिक हाथ के पंजे और मानव आकृति तथा शैलाश्रय, प्रसिद्ध पर्यटन स्थल सतरेंगा के पास स्थित ग्राम पंचायत कदमझरिया के बाबा मंडिल शैलाश्रय में हाथ के पंजों के 8-10 शैलचित्र, लेमरू ग्राम पंचायत के छातीबहार गाँव के छातीपाठ शैलाश्रय में लाल गेरुवे एवं सफेद रंग के 173 शैलचित्रों में सूर्य ,ज्यामितीय आकृतियाँ,  मुर्गी, मयूर, अश्व ,अश्वारोही ढाल और  खड्ग सहित, मछली के काँटा आदि शैलचित्र के अलावा छातीबहार के ही बरहाझरिया नाला के बाएँ तट के शैलाश्रय में हाथ के पंजे के 60, ज्यामिति प्रकार के 40, हिरण के 20 एवं अन्य शैलचित्रों की संख्या 30, कुल-150 से अधिक शैल चित्रों की खोज की । 
     आपने ग्राम पंचायत लेमरु के आश्रित ग्राम भूड़ूमाटी के खाममाड़ा शैलाश्रय में 2 घुड़सवार, 3 खड्गधारी पैदल सैनिक, 2 सर्प,1कानखजूरा, 3 हिरण, 1 मयूर,1मोरनी, 1मकड़ी, 2 दंड, 1 ज्यामितीय आकृति और 2 धूंधले शैलचित्रों की खोज किया । नकिया गाँव के रक्साद्वारी शैलाश्रय में दिनाँक 25/1/2020 को आपने कोरबा जिले में पहली बार काले रंग के हिरण का 1एवं लाल रंग के पूँछवाले जानवर , हाथ के पंजे ,शैलाश्रय में अनाज कुटने हेतु पाँच गोल छिद्र के अलावा यहाँ प्रचुर मात्रा में पाषाण कालीन लघु उपकरणों की खोज किया।
 सोनारी ग्राम के हाथाजोड़ी माड़ा में हाथों के पंजे की 30, पूँछवाले जानवरों के 10 आदि, के अलावा यहाँ से 10 से 15 मीटर दूर एक और शैलाश्रय में हाथ के पंजों के लालगेरुवे रंग में 9 और शैलचित्रों की खोज किया । उसी दिन सोनारी के ही एक और शैलाश्रय  धसकनटुकु में जो पहले शैलाश्रय से लगभग आधा किलोमीटर दूर है ,हाथ के पंजों की 7, दंड का 1और ज्यामितीय प्रकार के 30 शैलचित्रों की खोज आपने दिनांक 23/11/2019 को किया।
     ऐसे ही आपने दिनाँक 30/11/ 2019 को अरेतरा गाँव में 3 शैलाश्रयों रमेलमाड़ा में हाथ के पंजों की 16, ज्यामितीय प्रकार के 16 और जानवरों की 2 शैलचित्रों की खोज किया। यहाँ से 6 किलोमीटर दूर मानघोघर नदी के दाहिने तट पर स्थित हाथामाड़ा शैलाश्रय में हाथ के पंजों की सफेद और लाल रंग में कुल 65 और 2 ज्यामितीय प्रकार के शैलचित्रों की खोज किया। उसी दिन अरेतरा के ही हाथामाड़ा से लगभग 6 कि.मी. दूर मानघोघर नदी के बाएँ तट पर स्थित गढ़पहरी शैलाश्रय में हाथ के पंजे की 1, ज्यामितीय प्रकार के 1और 1 अस्पष्ट शैलचित्र की आपने खोज की ।
          अभी हाल ही में आपने भुड़ुमाटी के एक और शैलाश्रय  खिनताखोला जिसे चिंताखोला के नाम से भी जाना जाता है,में हाथ के पंजे की 18, उल्लू या गरुड़ के 6, सफेदहिरण 1, कालेहिरण 1,लालहिरण की 1, धान की बुवाई के 2 के अलावा अन्य शैलचित्रों की खोज किया। यहाँ एक मैदान में  बाल हनुमान  और  पक्षियों की  उड़ते  हुए ताम्र-पाषाणकालीन मूर्तियाँ भी खोजकर , इनकी जानकारी जिला प्रशासन एवं विभाग को उपलब्ध कराया।
      इसके अलावा पुटकापहाड़ी में भगवान कचहरी नामक ओपनथियेटर को प्रकाश में लाया है, यहाँ  रहा मान्यता है कि भगवान राम ने वनवास के दौरान  वनवासियों और संतों की पहली कचहरी (दरबार) कार्तिक पूर्णिमा के दिन लगाया था। तब से  जनजातीय समाज यहाँ प्रतिवर्ष दीपक जलाकर उन्हें  याद करते हैं। 
       आप का मानना है कि कोरबा जिले का पुटकालेमरू वन परिक्षेत्र आदिमानवों का विचरण क्षेत्र एवं ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है। यहाँ और भी शैलाश्रयों में शैलचित्रों की मिलने की संभावनाएँ है। एक न एक दिन यह क्षेत्र विश्व धरोहर के रूप में भी संरक्षित क्षेत्र घोषित होगा। आपके उपलब्धियों को देखकर आपका नाम मैं कोरबा जिले की जिले की ओर से पद्मश्री पुरस्कार के लिए प्रस्तावित करता हूँ।
                             (आभार -सुनीता सिंह ठाकुर, )
                                     हेमन्त दुबे (टीनी),मल्हार
                                            कोरबा 

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

सर्वमंगला दाई मंदिर की अज्ञात, रोचक और ज्ञानवर्धक कहानी

सर्वमंगला दाई मंदिर की अज्ञात, रोचक और ज्ञानवर्धक कहानी
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           जिला मुख्यालय कोरबा में हसदेव मंदिर के दाहिने तट पर विराजित माँ सर्वमंगला देवी कोरबा जमींदार परिवार की कुलदेवी है। 
                   
                   वर्तमान सर्वमंगला मंदिर
      जब कोरबा, कोरवाडीह कहलाता था, तब यहाँ कोरबा जमींदार के द्वारा राजमहल और सर्वमंगला मंदिर की स्थापना सोलहवीं शताब्दी सन् 1520 ईसवी में दीवान जोगीराय (जोगीदास )जी के द्वारा करवाया गया था।                  सर्वप्रथम स्थापित सर्वमंगला मंदिर    
           पहले सर्वमंगला मंदिर क्षेत्र दुरपा गाँव के निकट सघन वनों से आच्छादित  था। यहीं एक समतल जगह में चबूतरा बनाकर एक बैगा द्वारा, देवी की स्थापना जनजातिय मान्यता अनुरूप स्थानीय पत्थर पर घी और बंदन लगाकर,  इस क्षेत्र की रक्षक देवी के रूप में स्थापना किया गया था। प्रारंभ में यह देवी यहाँ स्थित गुफा मेंं विराजमान थी ।                  प्रवेशद्वार , सर्वमंगला मंदिर दुरपा
         तब कोरबा के तत्कालीन मुखिया और उनके वंशजों के द्वारा इस सघन वन क्षेत्र में नाव द्वारा हसदेव नदी को पार कर सर्वमंगला दाई की पूजा करने आते-जाते थे। यह देवी कोरबा इलाके की रक्षक, आराध्य और कुलदेवी के रूप में मान्य होकर, स्थापित की गई थी।                       गर्भगृह में स्थापित देवी
        पीढ़ी दर पीढ़ी इस देवी की मान्यता बढ़ती चली गई। इनसे राजपरिवार के सदस्यों द्वारा जो भी इच्छा प्रकट की जाती, उसे देवी पूरा कर देती थीं। इससे देवी के प्रति आस्था और विश्वास बढ़ती चली गई । धीरे-धीरे वे केवल राज परिवार की ही नहीं, वरन अन्य लोगों की भी मनौतियाँ और इच्छाएँ पूरी करने लगीं ।
                 प्रवेशद्वार, रानीमहल कोरबा
        इससे वह धीरे-धीरे प्रसिद्ध होने लगीं और सबकी मंगलकामनाओं की पूर्ति करने के कारण सर्वमंगला माई कहलाने लगीं। 
         माँ सर्वमंगला देवी का मंदिर जिला मुख्यालय कोरबा से महज 6 किलोमीटर दूर कोरबा-कुसमुंडा मार्ग पर हसदेव नदी के दाहिने तट पर नहर और नदी के मध्य भाग में 22•21' 33" उत्तरी अक्षांश और 82• 42' 60" पूर्वी देशांतर में समुद्र तल से 559.94 फीट की ऊँचाई पर स्थित है । अब यहाँ रेल और सड़क दोनों  के ही  लिए सेतु का निर्माण हो गया है। जिसे सर्वमंगला सेतु के नाम से भी जाना जाता है। 
                     सदस्य, राजपरिवार कोरबा
       राज परिवार के सदस्यों श्रीमती निर्मला देवी सिंह और रवि भूषण प्रताप सिंह जी का कहना है कि कोरबा जमींदार, सर्वमंगला माई की भव्य मंदिर बनवाना चाहते थे। अंत वे रतनपुर से महामाया के  द्विमुखी प्रतिमा को हाथी पर सम्मान पूर्वक बैठाकर ला रहे थे। उस समय रतनपुर से कोरवाडीह के लिए मार्ग कनकी होते हुए ही था । आवागमन हेतु कोई सीधा और सरल मार्ग नहीं था। यह रास्ता घनघोर जंगलवाला था। रतनपुर से कनकी पहुँचते तक रात हो चुकी थी। अतः रात कनकी में ही विश्राम करने का विचार तात्कालिन जमींदार भारत सिंह जी ने किया । उन्होंने महामाया की मूर्ति को हाथी के पीठ से उतरवाकर नीचे रखवा दिये।                     महामाया माई, कनकी
          प्रातः होने पर कोरबा जाने तैयारी किया जाने लगा। हाथी को नीचे बिठाकर, हाथी के पीठ पर महामाया की मूर्ति को रखा गया।
                द्विमुखी महामाया माई ,कनकी
         फिर हाथी को उठाने का प्रयास किया गया, पर वह हाथी उस महामाया की मूर्ति को लेकर, उठ न सका तब फिर दूसरे हाथी को मंगाकर उस पर भी महामाया की मूर्ति रखी गई । पर वह दूसरा हाथी भी महामाया माई की मूर्ति को लेकर न उठ सका। उस दिन सबने दिनभर प्रयास किये ,पर लाख मेहनत के बाद भी वे महामाया की मूर्ति को वहाँ से कोरबा ले जाने में सफल नहीं हो सके। इस तरह उन्हें दूसरी रात भी सबको वहीं विश्राम करना पड़ा। उसी रात जमींदार भारत सिंह जी को महामाया माई ने स्वप्न में आकर कहा कि मैं कनकी के शिवजी को देखकर बहुत प्रभावित हुई हूँ। अब मैं यहीं रहना चाहती हूँ। तुम यहीं आकर मेरी पूजा किया करना । कोरबा जमींदार भारत सिंह जी जिस मूर्ति को सर्वमंगला मंदिर  कोरबा में सर्वमंगला माँ की मूर्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे,  अब वे कनकी में ही कनकेश्वर महादेव मंदिर के निकट ही माँ की इच्छानुसार वहीं स्थापित कर दिया गया।
                     कनकेश्वर महादेव , कनकी
          आज वह वहीं विराजमान हैं।
          इसी तरह जमींदार जागेश्वर प्रसाद जी को भी सर्वमंगला माँ और मंदिर के ऊपर अगाध श्रद्धा थी। उन्होंने एक पेड़ के नीचे (जो वर्तमान मंदिर के पीछे थे) एक खपरैल छत वाला मंदिर बनवाकर देवी को स्थापित करवाया। मंदिर के खंडहर यहाँ अभी भी बिखरे पड़े हैं। जमींदार जागेश्वर प्रसाद के मृत्यु के बाद उनकी धर्मपत्नी रानी धनराज कुंवर देवी ने जमींदार पद संभाली । तब उन्होंने देवी के पुजारी बैगा के अनुरोध पर पक्का मंदिर बनवाकर देवी माँ को स्थापित करवाया।
             महामाया मंदिर, पुरानी बस्ती, कोरबा
            वर्तमान सर्वमंगला मंदिर का गर्भगृह रानी धनराज कुंवर देवी जी के द्वारा ही बनवाया गया था । जो महामाया मंदिर ,पुरानी बस्ती, कोरबा की ही तरह दिखती थी। यहाँ यह मान्यता रही है कि देवी की सर्वप्रथम पूजा कोरबा जमींदार व जमीदारीन साहिबा ही करते थे। तत्पश्चात् ही जमींदार परिवार के अन्य बंधु-बांधव पूजा करते थे। बाहरी व्यक्ति कम ही पूजा करने के लिए जाते थे। उस समय से ही नवरात्रि में पूजा का विशेष आयोजन होता आ रहा है। इसका पूरा खर्च रानी धनराज कुंवर उठाती थीं। यह पूजा बैगा ही संपन्न कराया करते थे और संपूर्ण चढ़ावे पर उस बैगा पुजारी का ही अधिकार होता था । मंदिर के गर्भ गृह में केवल राज परिवार के सदस्य और बैगा ही पूजा कर सकते थे। किसी ब्राह्मण पुजारी को गर्भ गृह में जाने की अनुमति नहीं थी। वे पूजा भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनके गर्भ गृह में बकरे व भैंस की बलि दी जाती थी। अब तो बलि प्रथा बंद है। तब भी मंदिर के पीछे अहाते के बाहर बकरे की बलि देने वाले, बलि दे ही देते हैं। बलि प्रथा की समाप्ति के बाद सर्वमंगला मंदिर के साथ ही साथ ,अन्य शक्तिपीठों पर भी ब्राह्मण पुजारियों का जमावड़ा होने लगा। सर्वमंगला मंदिर में भी अब ब्राह्मण पुजारी कमाने बैठने लगे हैं। अब तो ऐसे मंदिरों की कमाई खाने वाले पुजारीगणों द्वारा, इन मंदिरों को, अपने पुरखों का बनाया मंदिर , बताया जाने लगा है। ताकि उनकी कमाई हाथ से न चली जाये।  जिस चढ़ावे पर आदिवासी बैगा का अधिकार सिद्ध था,उन्हें उसका अधिकार नहीं मिलता है।        कोरबा में स्थित मंदिरों के देखभाल के लिए तरदा गाँव की भूमि रानी साहिबा द्वारा दान दिये गये थे। उनके नाती कुमार ज्योति भूषण प्रताप सिंह जी के द्वारा ट्रस्ट भी बना दिया गया था। परंतु वर्तमान में सर्वमंगला मंदिर पर एक ब्राह्मण परिवार का कब्जा है। श्रीमती निर्मला देवी सिंह जी का मानना है कि अन्य मंदिरों की देखभाल ,  दाऊ की भूमि के कमाई से, अब शायद ही किया जाता है।
       एक मान्यता है कि कोरबा जमींदार की तीनों देवियाँ कोसगाई, महामाया तथा सर्वमंगला माई दशहरे के दिन आपस में मिलती हैं।
            महामाया माई, पुरानी बस्ती, कोरबा
            यदि तीनों देवियाँ एक साथ किसी को दिख जाए तो उनके साथ कुछ न कुछ अनिष्ट हो ही जाता है, ऐसी मान्यता है । कोरबा जमींदार के राजपुरोहित सूर्यभान प्रसाद रहे ।उनके बाद गोपाल प्रसाद फिर गोपी प्रसाद राजपुरोहित रहे । उनके द्वारा गर्भगृह के बाहर,  राजपरिवार के लिए वैदिक पद्धति से पूजा-पाठ संपन्न कराया जाता था। उनके लिए दान-दक्षिणा का अलग से विधान था । उन्हें अलग से ही दक्षिणा प्रदान किया जाता था, क्योंकि सर्वमंगला मंदिर के गर्भगृह के चढ़ावे पर बैगा जनजाति के पुजारी का ही अधिकार था। कोसगाई दिए, मंदिर की पूजा आज भी एक बैगा ही करते हैं , और वहाँ के चढ़ावे पर आज भी उनका ही अधिकार है ।       
       सर्वमंगला मंदिर के गर्भ गृह में आज बलि प्रथा बंद कर दिया गया है। जबकि कोसगाई में आज भी बलि प्रथा का प्रचलन है। जिसमें इस प्रथा को मानने वाले बलि पूजा करते हैं। 
                    पद्मनाभ स्वामी, कोरबा
          सर्वमंगला मंदिर परिसर में सर्वमंगला मंदिर के अलावा राम जानकी मंदिर, हनुमान मंदिर,पद्मनाभ मंदिर, काली मंदिर ,भैरव मंदिर आदि के अलावा मंदिर के ब्राह्मण पुजारी का मकान और होटल भी है।
                        सूर्यदेव, कोरबा
मंदिर के पास ही एक वृद्धाश्रम भी संचालित है।
      मंदिर परिसर से कुछ ही दूरी पर एक गुफ़ा  समूह भी है । इन्हीं गुफाओं में से  किसी एक गुफा से हसदेव नदी के दूसरे तट पर स्थित रानी महल के अंदर से आने-जाने के लिए एक गुप्त सुरंग भी है। जिसमें अब आवागमन पूर्णतः बंद है। यहाँ मंदिर में पूजा करने और कब्जा के लिए आज भी राजपरिवार कोरबा और पुरोहित परिवार के बीच न्यायालय में वाद चल रहा है । जबकि गर्भगृह का मूल पुजारी, बैगा जनजाति का हक मारा जा चुका है । क्योंकि उनके ही पूर्वजों ने ही मूल सर्वमंगला दाई की मूर्ति की स्थापना किये थे। विडम्बना है कि आज उन्हें ही गर्भगृह में जाने का अधिकार नहीं है। तो गर्भगृह की चढ़ावे पर अधिकार तो कल्पना मात्र है। एक दिवास्वप्न है।
                         महामाया, रतनपुर
            मंदिर परिसर में मनोकामना ज्योति कलश भी बने हुए हैं । जिसमें हजारों भक्तों और श्रद्धालुगण अपनी-अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए, घी और तेल के ज्योति कलश प्रज्वलित कराते हैं। उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति होती हैं । अगले वर्ष ज्योति कलश की संख्या और भी बढ़ जाती है।                      सर्वमंगला दाई,कोरबा
             सर्वमंगला मांँ की ख्याति निरंतर बढ़ रही है, और मनोकामना ज्योति कलश की संख्या भी। पर आज भी राज परिवार और बैगा की मनोकामना पूरी नहीं हो पा रही है। कारण है उनके ही अधिकारों की रक्षा ,शासन और प्रशासन की नीतियों के कारण नहीं हो पा रही है। उनकी परंपरा अनुसार, उनकी पूजा-पद्धति से, उनके रीति-रिवाज के अनुसार उन्हें ही पूजा नहीं करने दिया जा रहा है। उन्हें अब भी अपनी मनोकामना पूरी होने का इंतजार है।
             महामाया मंदिर, पुरानी बस्ती ,कोरबा
            जब इस बारे में उनसे पूछा जाता है, तब उनकी आंखों में पीड़ा भरी क्रोध का अनोखा मिश्रण और दर्द झलक ही जाती है । लेकिन माँ सर्वमंगला दाई पर उन सबका विश्वास आज भी कायम है। यह सबेरा कभी तो आयेगी, जब हम अपनी कुलदेवी की पूजा पुनः गर्भगृह में प्रवेश कर अपनी रीति-रिवाज़ और परंपरानुसार कर पायेंगे।
           कोरबा जमींदारी अंतर्गत निवास करनेवाले सभी लोगों की मंगलकामनाएँ एवं कल्याण की भावना से एक आदिवासी जमींदार के द्वारा स्थापित सर्वमंगला मंदिर में आज एक ब्राह्मण पुजारी है जबकि  पूर्वकाल में यहाँ की पूजा एक बैगा के द्वारा किया जाता था, जहाँ सभी पंथ के लोग दर्शन करने आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं , ज्योतिकलश  जलवाते  हैं ।वहीं माँ सर्वमंगला सबपर अपनी समान कृपा करती हैं। कोरबा जिले में माँ सर्वमंगला मंदिर समरसता के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में  सर्वमान्य देवी है।

   संदर्भ:- कोरबा जमींदारी, लेखिका- श्रीमती निर्मला।                  देवी सिंह, नातीनबहु, रानी धनराज कुंवर  विशेष आभार:- श्री रविभूषण प्रताप सिंह जी का        जिन्होंने पुरानी बहुमूल्य छायाचित्र उपलब्ध कराये 

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

खूबसूरत खेतार गाँव और सतधारा मेंं बटी दीहारीन झूंझा

खूबसूरत गाँव खेतार और सतधारा में बटी दीहारीन झूँझा
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        कोरबा जिले के कोरबा विकासखंड अंतर्गत कोरबा से लेमरू मार्ग पर बाल्को होते हुए जिला मुख्यालय से लगभग 22.8 किलोमीटर दूर ग्राम गहनिया का आश्रित गाँव खेतार है। यह गाँव प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत गाँव है । चारों तरफ से जंगल और पहाड़ियों से घिरा हुआ यह गाँव, अपनी नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण है। गाँव केसलानाला के दाहीने तट पर बसा था। जो अब नाले से लगभग एक किलोमीटर दूर पीछे खिसक गई हैं।  केसलानाला, शुद्ध और पीने योग्य साफ जल से लबालब रहती है। यह नाला हसदेव नदी की सहायक जलधारा है, जो सदानीरा है।  गाँव में चंद घर ही हैं। जो पूर्णतः जनजातिय लोगों का गाँव है ।जहाँ मांझी और मझवार जनजाति की अधिकता है। यह नाला गाँववालों की कृषि के मुख्य आधार भी है। गाँव के मध्य एक इमली का पेड़ है जिसके आसपास ही गाँव बसा हुआ है।
        गाँव तक जाने के लिए कच्चा रास्ता बना हुआ है। जिसमें छोटे-बड़े पत्थरों को डाल कर कीचड़ से बचने का उपाय किया गया है। आज भी यहाँ पक्के मार्ग की राह गाँववालों के तरफ से देखा जा रहा है। पथरीला राह, जिसमें संभलकर यात्रा करनी पड़ती है। गाँव में एक एकल शिक्षक विद्यालय है। जिसमें प्राथमिक शिक्षा तक अध्यापन कार्य होता है। यहाँ पढ़ाने के लिए कोरबा के मुड़ापार से एक शिक्षिका जाती हैं, जिनका नाम आशा सिंह सूर्यवंशी हैं। जब मैं गाँव पहुंँचा , दो अक्टूबर का दिन था। गाँधी और शास्त्री जी की जयंती थी। शिक्षिका, बच्चों की रैली निकालकर गाँव की भ्रमण करा रही थीं। देशभक्ति के नारे लगवाए जा रहे थे। जिसकी आवाजें आ रही थीं। मुझे अपना बचपना याद आ गया ।बच्चों के आवाज के पीछे-पीछे मैं भी स्कूल पहुंँच गया। तब तक रैली स्कूल पहुँच चुकी थी। बच्चे, विद्यालय में जा चुके थे। स्कूल के एक कमरे में बच्चे दरी बिछाकर के जमीन पर बैठे हुए थे। एक बच्चा गांँधी जी बना हुआ था।            जिसने कागज के बने हुए सफेद चश्मा पहन रखे थे, एवं हाथ में लाठी  भी रखे हुए थे । विद्यालय पहुँचकर जब सब जमीन में दरी में बैठ गए उसी समय मैं भी पहुंँचा । गाँव के पुराने स्थलों की जानकारी लेने के लिए मैं विद्यालय पहुंँचा था। पर वहाँ शिक्षक के रूप में  शिक्षिका मिली। उन्होंने ऐसे स्थलों की जानकारी के बारे में अनभिज्ञता प्रकट की। तब उनसे अनुमति लेकर बच्चों से बात करने लगा। उनसे बात कर अच्छा लगा। फिर उन्हें जमीन में बैठकर गांँधीजी और शास्त्री जी के जीवन के बारे में बताने लगा। बच्चों को गणेश जी की मातृ-पितृ भक्ति की कहानी बताकर उन्हें धरती के साक्षात भगवान होने के बारे में बताने लगा। अंत में अपने साथ बिस्किट ले गया था, उसे बच्चों को वितरित किया। बच्चे और शिक्षिका बहुत खुश हो गए ।        
        गाँव में कोई अस्पताल नहीं है। गाँव में आज भी बीमार पड़ने पर लोग गाँव के बैगा के पास ही जाते हैं। गाँव के बैगा का नाम है , बनवारी मांझी । गाँव में पहुँचा तो इमली पेड़ के नीचे बने घर में एक व्यक्ति बीमार था। उसे झाड़-फूंक के लिए बनवारी मांझी को बुलाया गया था । मैं भी उसकी इलाज पद्धति को देखना चाहता था। बनवारी बैगा , बांस की बनी एक डंडे को शक्ति का प्रतीक मानकर रखे हुए थे। डंडा बहुत पुराना था। तेल और धुएँ के प्रभाव से काला हो गया था। वह तंत्र-मंत्र और डंडे की शक्ति से इलाज करने का दावा करते हैं। मुझे उनके साथ जाने की अनुमति नहीं मिला। इसलिए इस बारे में ज्यादा नहीं बता सकता हूँ। गाँव में एक बच्ची आँगनबाड़ी केन्द्र से वितरण किए गए पोषक खाद्य पदार्थ को लेकर घुम रही थी।
         इसलिए मैं उस समय का लाभ लेने के लिए गाँव के ही एक युवक अमर मांझी को लेकर वहाँ के पिकनिक स्थल जाने का निश्चय किया। इमली पेड़ से दाहिने तरफ लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर दूर पैदल चलकर एक नाले को पार कर उस पर बने दीहारीन झूँझा पहुँचा। दीहारीन झूँझा मैदानी भाग पर बना हुआ एक खूबसूरत जलप्रपात है। यह जलप्रपात 22• 28' 58" उत्तरी अक्षांश और 82• 50 '32" पूर्वी देशांतर पर समुद्र तल से 1337.57 फीट की ऊंँचाई पर स्थित है ।यह लगभग 25 मीटर की दूरी पर छोटी-बड़ी सात जलधाराएंँ बनाकर जलप्रपात के रूप में गिरती हैं । जलप्रपातों की ऊँचाई ज्यादा नहीं है ,पर ये अपनी प्राकृतिक सुंदरता और सतत जलधारा के लिए चित्ताकर्षक हैं। गाँववाले इसे दीहारीन झाँझा के नाम से जानते हैं , पर इसे यह नामकरण कैसे पड़ा कोई नहीं जानते हैं । मेरे मतानुसार अपनी सात धाराओं के रूप में गिरने के कारण इन जलधाराओं को सतधारा जलप्रपात ,खेतार कहना ज्यादा उचित जान पड़ता है।
         यदि गाँव तक पक्की सड़कें बन जाए तो यहाँ ज्यादा पर्यटक पहुँच सकते हैं। इससे गाँववाले ज्यादा लाभान्वित हो सकते हैं। जहाँ तक उस बीमार व्यक्ति के बीमार होने का है , मेरे मतानुसार इमली का पेड़  इसके लिए ज्यादा उत्तरदाई लगता है , क्योंकि इमली का पेड़ 24 घंटे कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन करती रहती है। ऐसे में उसके नीचे रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य खराब होने की संभावना ज्यादा रहती है।  इस दिशा में जन जागरूकता की भी आवश्यकता है । तो सप्ताह में वहाँ किसी न किसी एक स्वास्थ्य कर्मी का दौरा कराया जाना भी उचित होगा।  जिसके बारे में शासन-प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है।

सोमवार, 20 सितंबर 2021

मल्हार में राम





 मल्हार में राम
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बिलासपुर जिले के मस्तुरी विकासखंड अंतर्गत नगरपंचायत मल्हार  है। 

      दक्षिण कोसल का सबसे प्राचीनतम नगर मल्हार अपने पुरावैभव के लिए जगत प्रसिद्ध है। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के द्वारा यहाँ का इतिहास, ईसा पूर्व एक हजार साल से अब तक निरंतर बताया गया है । मल्हार के स्थानीय निवासी स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी के निजी संग्रह से तथा सागर विश्वविद्यालय तथा उत्खनन विभाग नागपुर द्वारा मल्हार में किए गए उत्खननों से भी इस बात की पुष्टि होती है। 
        पौराणिक ग्रंथों  के अलावा भी इस क्षेत्र के बारे में वाल्मिकी रामायण तथा महाभारत में भी मल्हार के
विभिन्न जगहों के बारे में उल्लेख है। जिसके बारे में अनेक दंतकथाएँ  हैं।  ऐसे ही एक दंतकथा है यहाँ के परमेसरा तालाब के बारे में , जिसका प्राचीन नाम पंचाप्सरा  था । जो अपभ्रंष होकर परमेसरा हो गया है।  त्रेतायुग में यह क्षेत्र पंचाप्सर तीर्थ कहलाता था।           वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के एकादश सर्ग में इस संबंध में विस्तार से वर्णन किया गया है। उस समय मल्हार के वर्तमान परमेसरा तालाब का विस्तार एक योजन तक था। जो सिकुड़ते-सिकुड़ते  अब मात्र 39 एकड़ का ही रह गया है। इस तालाब की दंतकथाओं  में से एक यह भी है कि इस तालाब के मध्य में सोने का एक महल है। जिनमें एक ऋषिराजा  अपने पाँच रानियों के साथ निवास करते हैं। प्राचीन काल में यहाँ निवास करने वाली रानियाँ  कमल के पत्ते और फूलों में बैठकर तालाब के किनारे स्थित शिवमंदिर में आकर शिव जी की पूजा करती, फिर वैसे ही पुनः तालाब के मध्य बने सोने के महल में लौट जातीं,  वहाँ जाकर गायन वादन करतीं थीं । जिनकी आवाज अब तक अनेकों ग्रामीण सुन चुके हैं। 
       अचला सप्तमी के दिन इस तालाब का शीतल जल गंगा सहित अनेकों तीर्थों का यहाँ समागम होता है। उस दिन यदि इस तालाब में स्नानकर यहाँ से जल लेकर पातालेश्वर महादेव का अभिषेक करने से भू-मण्डल में स्थित सभी तीर्थों में स्थान करने का फल मिलता है।
        
ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे ।
ददृशुः सहिता रम्यं तटाकं  योजनायुतम् ।।
                                        - वा.रा. अर.कां.11/5
अर्थात् दूर तक यात्रा तय करने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन तीनों ने एक साथ देखा- सामने एक बड़ा ही सुंदर तलाब है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई एक एक योजन की जान पड़ती है।
पद्मपुष्करसम्बाधं गजयूथैरलंकृतम्  ।
सारसैर्हंसकादम्बैः संकुलंजलजातिभिः ।।
                                         -वा.रा.अर.कां.11/6 अर्थात् वह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था । उसमें क्रीड़ा करते हुए झुंड के झुंड हाथी उसकी शोभा बढ़ाते थे। तथा सारस ,राजहंस और कलहंस आदि पक्षियों एवं जल में उत्पन्न होने वाले मत्स्य आदि जंतुओं से व्याप्त दिखाई देता था।
प्रसन्नसलिले रम्ये तस्मिन् सरसि शुश्रुवे ।
गीतवादित्रनिर्घोषो न तु कश्चन दृश्यते।।7।।
ततः कौतुहलाद् रामो लक्ष्मणश्च महारथी।
मुनिं धर्मभृतं नाम प्रष्टुं समुपचक्रमे ।।8।।
इदमत्यद्भुतं श्रुत्वा सर्वेषां नो महामुने  ।
कौतूहलं महज्जातं किमिदं साधु कथ्यताम् ।।9।।
                    - वा.रा. अर.कां.सर्ग 11-7/8/9
अर्थात् स्वच्छ जल से भरी हुई उस रमणीय सरोवर में गाने बजाने का शब्द सुनाई देता था, किंतु कोई दिखाई नहीं दे रहा था। तब श्री राम और महारथी लक्ष्मण ने कौतूहलवस अपने साथ आए हुए धर्मभृत नामक मुनि से पूछना आरंभ किया।  महामुने ! यह अत्यंत अद्भुत संगीत की ध्वनि सुनकर हम सब लोगों को बड़ा कौतूहल हो रहा है  यह क्या है, इसे अच्छी तरह बताइए।  तब धर्मभृत मुनि ने कहा कि-
इदं पञ्चाप्सरो नाम तटाकं सार्वकालिकम्।
निर्मितं तपसा राम मुनिना माण्डकर्णिना ।।11।।
स ही तेपे तपस्तीव्रं माण्डकर्णिर्महामुनिः ।
दशवर्षसहस्त्राणि वायुभक्षो जलाशये।।12।।
      अर्थात्  श्रीराम ! यह पंचाप्सर नामक सरोवर है, जो सर्वदा अगाध जल से भरा रहता है। माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इसका निर्माण किया था। महामुनि माण्डकर्णि ने एक जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्त्र वर्षों तक तीव्र तपस्या की थी।
                     -   वा.रा.अर.कां. सर्ग-11-11/12
ततः कर्तुं तपोविघ्नं सर्वदेवैर्नियोजिताः । 
प्रधानाप्सरसः पञ्च विद्युच्चलितवर्चसः ।।15।।
अप्सरोभिस्ततस्ताभिर्मुनिर्दृष्टपरावरः ।
नीतो मदनवश्यत्वं देवानां कार्यसिद्धये।।16।।
ताश्चैवाप्सरसः पञ्च मुनेः पत्नीत्वमागताः।
तटाके निर्मितं तासां तस्मिन्नन्तर्हितं गृहम् ।।17।।
तत्रैवाप्सरसः पञ्च निवसन्त्यो यथासुखम् ।
रमयन्ति तपोयोगान्मुनिं यौवनमास्थितम्  ।।18।।
तासां संक्रीडमानानामेष वादित्रनिःस्वनः ।
श्रूयते भूषणोन्मिश्रो गीतशब्दो मनोहरः ।।19।।
         अर्थात् तब उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिनकी अंगकांति विद्युत के समान चंचल थी। तदन्तर जिन्होंने लौकिक एवं पारलौकिक धर्माधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन मुनि को उन पाँच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए काम के अधीन कर दिया। मुनि की पत्नी बनी हुई वे ही पाँच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं।  उनके रहने के लिए इस तालाब के भीतर घर बना हुआ है, जो जल के अंदर छिपा हुआ है । उसी घर में सुखपूर्वक रहती हुई पाँचों अप्सराएँ तपस्या के प्रभाव से युवा अवस्था को प्राप्त हुए मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं । क्रीड़ा-विहार में लगी हुई उन अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनाई देती है,  जो भूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है। साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है। 
       -वा.रा.अरं.कां.सर्ग-11 -15/16/17/18/19
        इस तरह त्रेतायुग में मल्हार का परमेसरा तालाब का क्षेत्र पञ्चाप्सर तीर्थ के नाम से जाना जाता है। जिस दिन राम इस तीर्थ में आए थे, वह अचला सप्तमी के ही दिन था।उसी की याद में मल्हार के इस प्रसिद्ध तालाब में एक दिन सम्पूर्ण तीर्थों का निवास स्थान माना जाता है। उसी दिन से शिव और राम को मानने वाले अचला सप्तमी के दिन इस पंचाप्सर तीर्थ  स्थान में स्नान कर यहाँ से जल लेकर पातालेश्वर महादेव में जलाभिषेक कर सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त करते हैं। 
       
        हरि सिंह क्षत्री (मल्हारवाले), मार्गदर्शक जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, कोरबा

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

विलक्षण स्मार्तलिंग -रानीमहल कोरबा

स्मार्तशिवलिंग,  रानीमहल कोरबा  
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    पुरातात्विक महत्त्व का यह स्थल छत्तीसगढ़ राज्य के कोरबा जिले में 22• 20'42"उत्तरी अक्षांश और 82• 41' 46"पूर्वी देशांतर पर समुद्र तल से 359.77 मीटर की ऊँचाई पर हसदेव नदी के बायें तट पर जिला मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रानीमहल है । इसी महल के पीछे एक प्राचीन शिव मंदिर है ।    इस पुरास्थल को कोरबा जमीदारी के अंतर्गत मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त है । रानी महल से पहले राजगढ़ी महल का  अवशेष आज भी परिलक्षित है। जब राजगढ़ी महल खंडहर में परिवर्तित होने लगा था , तब 1913 के आसपास रानी महल का निर्माण प्रारंभ हुआ। जिस पर रानी धनराज कुँवर का आधिपत्य था। यहाँ एक ही स्थल पर दो शिव मंदिर एवं एक तुलसी चौरा बना हुआ है। समय के साथ ही साथ यह स्थल झाड़ियों में छिप गया था। मंदिर में बहुत ही कम लोगों का आना जाना था। इसका कारण यहाँ तक पहुँचना श्रम साध्य था। यहाँ पर बनी सीढ़ियाँ टूट चुकी थी ,और फिसलन भरी रहती थी। जिसका जीर्णोद्धार तात्कालिक पार्षद श्री मनीष शर्मा जी ने करवाया। (1*)  इसके बाद अब यहाँ पहुँचना सुगम हो गया है। मुझे स्थानीय निवासी मनीष शर्मा जी , सत्या जायसवाल जी और केशव साहू जी द्वारा स्थल सर्वे में सहयोग प्रदान किया गया। मैं उन लोगों का आभारी हूँ। 
         यहाँ एक ही परिसर में दो लघु मंदिर हैं। इसमें एक में स्मार्तशिवलिंग विराजित हैं , तो दूसरे में प्राकृतिक पत्थर को काट एवं तराशकर शिवलिंग को योनिपीठ के साथ बनाया गया है। यहाँ नंदी नहीं है, पर यह मंदिर 2 भाग में है।  मंदिर में प्रवेश करने पर सबसे पहले गणेश जी की प्रतिमा दिखाई देती है। जिससे यह आभास होता है कि यह गणेश मंदिर ही है, क्योंकि मंदिर के द्वार शाखा में भी गणेश जी बना हुआ है, लेकिन जैसे ही आप मंदिर में प्रवेश करते हैं ,वैसे ही बायें  भाग में एक और मंदिर  बना  हुआ है,  जो बाहर से  दिखाई नहीं  देता है । यहाँ शिवलिंग योनिपीठ के साथ जो नदी किनारे स्थित प्राकृतिक बलुवे पत्थर को काटकर , अच्छे से तराशकर बनाया गया है।  यहाँ  नंदी स्थापित  नहीं है,  जो बनावट के आधार ज्यादा प्राचीन प्रतीत होता है । यह अनुमान ही लगाया जा सकता है। यहाँ गणेश जी को लाल रंग से पुताई कर दिया गया है ,जिससे इसकी काल निर्धारण करना थोड़ा मुश्किल हो पा रहा है । संभवत दोनों ही समकालीन रहे हों।  (2*)  
            यहाँ मंदिर के प्रवेश द्वार के दाहिने भाग में जो शिवलिंग है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। जिसे स्मार्त  शिवलिंग कहा जाता है। (3*) यहाँ विराजित नंदी शिवलिंग  की  ओर  मुख न करके ,सामने के मंदिर की ओर मुख किया हुआ है। जो दूसरी तरफ स्थापित गणेश जी की ओर देख रहा है, जैसे दोनों नंदी और गणेश जी एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हों, जैसे  पूछ रहे हों कि इस जगह की महत्ता आखिर कब बढ़ेगी ? नंदी और गणेश जी के मुख पर एक मुस्कान स्पष्टरुप देखा जा सकता है। जैसे यहाँ के लोगों पर हँस रहा हो। जैसे  कह रहे हैं कि  दूर-दूर तो जलाभिषेक करने चले जाते हो , परंतु हमारे ही आशीर्वाद से जो यह कोरबा बस्ती बनी । राजगढ़ी महल बना। हमने ही रानी महल की सुरक्षा और कोरबा जमीदारी को सुरक्षित करने फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया ।(4*)अब जमीदारी चली गई तो हमारी पूजा तक नहीं हो रही है । पहले जमीदार परिवार के लोग कभी सूरंग से तो कभी नाव से नदी पार कर,  माँ सर्वमंगला की  पूजा करने जाते थे। यहाँ की पुजारी ने मंदिर पर कब्जा  क्या किया,  तब से हमने सूरंग का द्वार भी बंद कर दिए  ताकि  उन्हें  कोई  खतरा  न हो।  अवैध कब्जाधारियों का यहाँ भरमार हो गया है।  बाहर के लोग यहाँ आने लगे और कोरवाडीह अब कोरबा जिला बन गया है। हमने आशीर्वाद दिये, पर स्वार्थी लोग यहाँ बेहिसाब धन कमाने  तो लगे पर हम लोगों की सुधि लेना ही भूल गए । रानीमहल से हमें बाहर करने वालों की गति से भी सीख नहीं ले रहे हैं। राजगढ़ी महल खंडहर बन गया, रानीमहल में अब कोई दीपक जलाने वाला नहीं है। हमने सूरंग की द्वार बंद कर दी, तब भी लोग नहीं समझ रहे हैं। वे क्या तब समझेंगे जब मेरा तीसरा नेत्र खुलेगा और कोरबा पाताल में समा जाएगा। ऐसा मुझे वहाँ ध्यान लगाकर सुनने से आभास हुआ। पर ईश्वर जाने ईश्वर की मर्जी।
        यहाँ मैं इस अनोखे स्मार्त शिवलिंग की चर्चा करना और इनकी इतिहास बताना जरूरी समझ रहा हूँ। यहाँ चट्टान काटकर जो शिवलिंग बनाया गया है जो स्मार्त शिवलिंग है।  प्राचीन काल में ही भारतीय धार्मिक जीवन दो प्रकार की प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा है। प्रथम सांप्रदायिकता एवं द्वेष की प्रवृत्ति, द्वितीय सांप्रदायिक सह अस्तित्व व सद्भावना की प्रवृत्ति।प्रथम प्रवृत्ति से वैष्णव तथा शैव मतावलम्बियों से असहिष्णुता एवं कट्टरता विकसित हुई तो दूसरी ओर स्मार्तों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से सांप्रदायिक सौहार्द व सहनशीलता की भावना प्रकट हुई । इसी उदारवादी धार्मिक दृष्टिकोण से पंचदेवोपासना , पंचोंपासना, पंचायतन पूजा अथवा स्मार्तपूजा का जन्म हुआ । इन 5 पिण्डों की व्याख्या, कुछ विद्वानों ने पंचमुखी शिवलिंग एवं मार्तंड लिंग के रूप में की है। पंचमुखी शिवलिंग शिवजी के सद्योजात,  वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान रूपों का समेकित से प्रदर्शन है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इन सभी की मूर्तियों की प्रतीकात्मकता का विवेचन मिलता है। सद्योजात - पृथ्वी, वामदेव- जल( जिसे स्त्री रूप में माना जाता है), अघोर- अग्नि, तत्पुरुष- वायु तथा  ईशान- आकाश ।इन्हीं पंचतत्वों को शिवजी के पाँच मुखों के माध्यम से अंकित किया जाता है।  वस्तुतः यह पाँच मुख पाँच तत्वों की ओर लिंग संसार की सृष्टि का प्रतीक है । स्मार्त पूजा या उपासना विधि में सनातन धर्म के 5 अथवा 6 संप्रदायों,  वैष्णव,शैव,  शाक्त, सौर,  गाणपत्य  तथा कुमार के अधिष्ठाता देवताओं,  शिव,  विष्णु, शक्ति, सूर्य ,गणपति एवं कुमार की पूजा-अर्चना एक साथ हो जाती है।
         इस प्रकार की उदारवादी विचारधारा का चलन सनातन धर्म में सदैव से रही है ,पर गुप्त शासनकाल में उनके शासकों के उदार दृष्टिकोण से यह विशेष रूप से पल्लवित हुई।  इसके परिणाम स्वरूप पंचदेव उपासना का विकास हुआ। ज्ञात स्मार्तलिंगों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम प्रकार में केवल पाँच गोल आकार के पिंड ही प्राप्त होते हैं, जबकि द्वितीय प्रकार में इसके अतिरिक्त एक लघु आकार का छठा पिण्ड भी पीठ के मध्य भाग में दर्शाया जाता है। परंतु अभी तक छठा पिण्ड भी सुरक्षित हो ऐसा नहीं देखा गया है।  यद्यपि स्मार्त पूजा में सामान्यतः केवल पाँच देवताओं की ही पूजा होती है किंतु आदि शंकराचार्य जो षड्मतस्थापनाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं,  के प्रभाव स्वरूप पंचदेवों के साथ कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है । इसका कारण भी है आदि शंकराचार्य दक्षिणात्त्य ब्राम्हण थे। दक्षिण भारत में कार्तिकेय अत्यधिक लोकप्रिय हैं, अतः स्मार्त पूजा में उन्हें सम्मिलित करना अनिवार्य था। 
            कोरबा जिले के तुमान और पाली में भी स्मार्तलिंग मिले  हैं। जिनके चारों कोनों  पर शिवलिंग  जैसी संरचना  निर्मित  है।  जिनमें  वलयाकार सर्प  लिपटी हैं। यहाँ  से प्राप्त स्मार्तलिंग निश्चित रूप से 10-12 वीं शताब्दी  के  मध्य कलचुरी  शासकों  के  द्वारा  निर्मित कराया गया है,  ये  पाँचों  पिण्ड आपस में  जुड़े  हुए हैं। (5*)
        कोरबा  से  प्राप्त स्मार्तलिंग पाँच अलग-अलग पिण्ड  रूप में हैं।   जो शिव, विष्णु, गणेश ,सूर्य एवं शक्ति  के प्रतीक हैं।  इसे कोरबा राज परिवार ने ही बनवाया है कि यह पहले से ही गोंड़  राजाओं के द्वारा बनवाया गया है, यह कह पाना कठिन है। पर इस शिव मंदिर के सामने ही ,नदी बंदरगाह बने हुए हैं ।जहाँ जल व्यापार का एक बड़ा केंद्र यहाँ रहा होगा, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है।  इस कारण यह भी कहा जा सकता है कि कोरबा के इतिहास लिखने के लिए  यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिसका संरक्षण किया जाना भी अति आवश्यक हो जाता है। साथ ही शिव भक्तों एवं कावड़ियों के लिए  भी जो ज्यादा चल पाने में असमर्थ हैं, साथ ही वे भक्त जो एक ही शिवलिंग का जलाभिषेक कर पंचतत्व, जल, अग्नि, वायु ,भू  और आकाश के साथ ही साथ 5 देवताओं, शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य और माँ आदिशक्ति को प्रसन्न करना चाहते हैं , उनके लिए  भी यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।  वहीं पुरातत्व प्रेमियो  के लिए भी,  नदी बंदरगाह से व्यापार  कैसे किया जाता रहा होगा?  यह स्थल दर्शनीय एवं अध्ययन  योग्य है।
संदर्भ ः-
1*- मनीष शर्मा(पार्षद पुरानी बस्ती)- से साक्षात्कार
2*- हरि सिंह क्षत्री मार्गदर्शक जिला पुरातत्त्व संग्रहालय         कोरबा, सर्वे प्रतिवेदन
3*- जी.एल. रायकवार, पूर्व उपसंचालक संस्कृति एवं।         पुरातत्त्व विभाग , रायपुर
4*- रविभूषण प्रताप सिंह, सदस्य राजपरिवार कोरबा।           से साक्षात्कार
5*- डाॅक्टर पी.के.मिश्र, डी.के.खमारी, एस. एन.यादव- तुमान अनुरक्षण एक नवीन प्रकाश, प्रोसिडिंग 2010- संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग रायपुर -पृष्ठ- 343
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   1/-हरि सिंह क्षत्री, मार्गदर्शक, जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, कोरबा