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कोसगाई गढ़ को किसने और कब बनवाया यह कोई भी इतिहासकार अभी निश्चित रूप से नहीं कर सकते हैं। परंतु कोसगाई गढ़ बहुत बातों के लिए इतिहास की टूटती हुई ,खासकर कलचुरी राजवंश की लुप्त वंशावली को जोड़ने वाली एक अहम कड़ी के रूप में जाना जा सकता है। ऐसे तों हम जानते ही हैं कि कलचुरी राजवंश भारतवर्ष में सबसे ज्यादा राज करने वाला राजवंश रहा है। फिर भी इसके अंतिम शाखाएं क्यों लुप्त हुई, खोज का विषय है।
प्राप्त शिलालेख से जाना जा सकता है कि दक्षिण कोसल में कलचुरी राजवंश कलिंग राज ने जो कोकल्ल प्रथम के कनिष्ठ पुत्र का वंशज था, अपने निर्बाध शक्ति तथा खजाने वृद्धि करने की दृष्टि से अपने पूर्वजों का देश का डाहल को छोड़ दिया और ईसवी सन् 1000 में दक्षिण कोसल को जीता । उसने अपनी राजधानी के लिए तुम्मान को चुना ,क्योंकि उसके पूर्वजों ने उसे अपने शासनकाल का मुख्यालय बनाया था। वहाँ रहकर तथा शत्रुओं का सफाया कर उसने अपने वैभव को बढ़ाया। कलिंग राज के शासनकाल की उल्लेखनीय घटनाएं धार के परमार शासक सिंधु का आक्रमण था । कलिंग राज के बाद कमलराज फिर रत्नदेव प्रथम,फिर पृथ्वीदेव प्रथम , फिर जाजल्लदेव प्रथम ,फिर रत्नदेव द्वितीय, फिर पृथ्वीदेव द्वितीय ,फिर जाजल्लदेव द्वितीय, फिर जगद्देव ,फिर रत्नदेव तृतीय फिर प्रतापमल्ल देव राजा बने। यहाँ तक का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है। परंतु तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में हमें रतनपुर शाखा के कलचुरी शासकों का शिलालेखिय प्रमाण बिल्कुल नहीं मिलता है।
15वीं शताब्दी के समाप्ति तक बाहरसाय के शासनकाल तक हमें प्रतापमल्ल के उत्तराधिकारियों के अभिलेख उपलब्ध नहीं होते हैं। तथापि हमें अन्य राजवंशों के अभिलेखों का शासन करने वाले राजाओं का यदा-कदा उल्लेख मिलता है । राजा बाहरसाय के प्रस्तर अभिलेखों में रतनपुर के कलचुरी नरेश के और नाम मिलते हैं। इस राजा के कोसंगा शिलालेख (कोसगाई) में कुछ स्थानों पर उसकी विजय अंकित हैं। इसमें राजा बाहरसाय तक रतनपुर के कलचुरी नरेशों के वंश क्रम का भी वर्णन है। जिनके 5 पूर्वज सिम्बम, घनवीर, मदनब्राम्हण , रामचंद्र और रत्नसेन का उल्लेख है। बाहर ने ईसवी सन् 1480 से 1515 तक शासन किया तथापि उसमें बाहर के पूर्वजों के शासनकाल की किसी राजनीतिक घटना का उल्लेख नहीं किया गया है । यदि शासनकाल का औसत 25 वर्ष मानले तो सिंघना जो पार पीढ़ी पूर्व हुआ था ईसवी सन् 1335 में गद्दी पर बैठा रहा होगा। संभवतः यह राजा वहीं होगा जिसका उल्लेख रायपुर और खल्लारी शिलालेखों में सिघन या सिंह के रूप में किया जाता है और यह भी प्रतीत होता है कि उसने उस उसी अवधि में शासन किया था। जबकि उसका पौत्र ब्रह्मदेव ने ईसवी सन् 1402 में रायपुर और खल्लारी में शासन कर रहा था । रायपुर शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि लक्ष्मीदेव ने रायपुर में शासन किया था , जिसके पुत्र का नाम रामचंद्र तथा । यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है।
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि बाहर के पूर्वजों के शासन के संबंध में हमें कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है। तथापि बाहर के शासनकाल में पठानों से छुटपुट झड़पें हुई थी। अतः वह अपनी राजधानी रतनपुर से कोसंग आज का कोसगाई गढ़ ले गया और संभवत उसने ऐसा पठानों के हमलों के कारण किया था। कोसंगा के इस किले से वह पठानों की बाहरी चौकियों पर आक्रमण किया करता था। कोसगाई शिलालेख में हमें इस क्षेत्र में पठानों के हमलों तथा राजा बाहर तथा उसके मंत्री माधव के जवाबी हमलों का उल्लेख मिलता है। तथापि मुस्लिम इतिवृत्त में इस क्षेत्र में अफगानों के किए हमले का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि यह क्षेत्र भूअवष्टित होने कारण उनके लूटपाट की गतिविधियों से काफी सुरक्षित था। अब्दुल्ला के तारिख दाऊदी में शहडोल जिले में बंधु के किले पर सिकंदर लोदी के आक्रमण का उल्लेख है जिसे वह जीत नहीं सका था।
बाहरसाय के उत्तराधिकारियों का कोई शिलालेखीय प्रमाण नहीं है ।कल्याणसाय जो बाहर का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था के संबंध में यह कहा जाता है कि वह मुगल सम्राट अकबर को नजराना देने के लिए आगरा चले गये थे। आगरा प्रस्थान करने के पहले उसने अपने साम्राज्य का प्रशासन अपने पुत्र लक्ष्मणसाय को सौंप दिया था । वे आगरा में लगभग 8 वर्ष रहे और वहाँ से वह सम्मानोपाधि तथा राजा के पूरे अधिकार लेकर रतनपुर लौटा और उसे उच्च पदवी देकर रतनपुर प्रदेश का कब्जा दे दिया गया।